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________________ [१.५] कैसे-कैसे प्रकृति स्वभाव ५७ कर्म उपद्रवी और प्रकृति निरुपद्रवी प्रश्नकर्ता : अर्थात् ऐसा कहा जा सकता है कि खुद की प्रकृति उसका बचाव करती है, आधार देती है। दादाश्री : वह तो स्वभाव है। उसमें तो, अगर कभी यदि अपनी दखलंदाजी न रही हो तो फिर प्रकृति तो अपने आप रिपेयर कर ही देती है। प्रकृति का स्वभाव निरुपद्रवी है। कोई भी उपद्रव होने लगे तो वह बंद कर देती है क्योंकि अपने कर्म के उदय की वजह से उपद्रवी हो जाती है यदि अहंकार करे तो। बाकी प्रकृति का स्वभाव निरुपद्रवी है। हो चुके उपद्रव को ढंक देती है तुरंत ही। प्रश्नकर्ता : इसका मतलब यह है कि जो पूरण किया हुआ है उसका अपने आप गलन होता ही रहेगा। दादाश्री : होता ही रहता है, लेकिन प्रकृति निरुपद्रवी होती है। उपद्रव अपने कर्मों की वजह से है। फिर अगर यहाँ पर चोट लग जाए तो प्रकृति उसे ढंक देने की शुरुआत कर देती है तुरंत ही! प्रश्नकर्ता : चोट लगने के बाद तुरंत ही हीलिंग प्रोसेस शुरू हो जाती है। दादाश्री : तुरंत ही, सारी मशीनरी तैयार। यह इस म्युनिसिपालिटी में भी ऐसा होता है, किसी जगह पर नुकसान हुआ कि म्युनिसिपालिटी की सारी मशीनरी वहाँ पर लग जाती है और यह भी ऐसी ही है लेकिन यह अक्सीर है और वह तो सारा रिश्वतवाला हिसाब है। अंदर थोडा बहत हो जाए या न भी हो। किसी के वहाँ रोड़ी डालनी होती है लेकिन किसी और के वहाँ डाल आता है, ऐसा सब है। जबकि यह तो अक्सीर। प्रश्नकर्ता : इसमें जो आपने उपद्रवी कहा है, तो वह कैसा उपद्रव है? दादाश्री : किसी को अगर साइकल से टकराकर चोट लग गई, पैर में चीरा लग गया, तो ये सब उपद्रव कर्म के उदय की वजह से हैं
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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