SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१.५] कैसे-कैसे प्रकृति स्वभाव ४७ के ज्ञाता-दृष्टा रहा जा सकता है, लेकिन बाकी कैसे और किस में से करना दादाश्री : सामनेवाला यदि हमें गालियाँ दे तो ये गालियाँ भगवान नहीं दे रहे हैं, यह तो प्रकृति स्वभाव इसे गालियाँ दे रहा है। इतना घटा दें तो (उसमें) भगवान दिखाई देंगे। तमाम प्रकार के प्रकृति स्वभाव घटा दें तो भगवान दिखाई देंगे। इतना वाक्य यदि कभी होता न तो ये जो कितने ही साधु हैं, ये सभी मोक्षमार्ग पर चल पड़ते। अगर इतनी ही मिलावट रहित बात किसी ने कही होती तो! इससे जन्म लेते हैं प्राकृत गुण लौंग मीठे लगें, तो क्या कहते हो? मुँह को स्वादिष्ट लगें तो? विकारी हो गया है यह, मूल स्वभाव में नहीं है। अगर करेले मीठे हो जाएँ तो खाओगे? 'नहीं! कड़वे ही चाहिए।' कहता है। ज़रा फीके हों तो चला लेंगे, लेकिन मीठे तो छूएँगे ही नहीं। हर चीज़ अपने-अपने स्वभाव में होती है। इस जगत् में कोई भी चीज़ अपना स्वभाव छोड़ती नहीं है। इसीलिए कई लोग कहते हैं न, 'मछली हमें प्रिय है।' अरे मछली में क्या सुख मिलता है? तो जैसे अपनी सब्जी-भाजी में सब अलग-अलग लगता है, वैसा ही? हर एक चीज़ के परमाणुओं में फर्क है, इसलिए स्वाद में फर्क है। अगर अभी रोटी बनाएँ आठ बजकर दस मिनट पर और फिर आठ बजकर पंद्रह मिनट पर बनाएँ तो दोनों के स्वाद में फर्क होगा क्योंकि टाइम चेन्ज हो गया न! उसमें भाव कम-ज़्यादा पड़ता है, आटा वही का वही है। प्रश्नकर्ता : आटे के परमाणुओं में भी परिवर्तन होता है? दादाश्री : वही टाइम लिमिट! आटा, पानी वगैरह, यानी कि हर एक चीज़ में परिवर्तन होता रहता है और फिर अपने लोग कहते हैं, 'नहींनहीं, रोटी वही की वही है।' अरे, नहीं है! हर एक रोटी अलग होती हैं। टाइम अलग है न!
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy