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________________ [१.२] प्रकृति, वह है परिणाम स्वरूप से १७ दोनों बरतें निज स्वभाव में प्रश्नकर्ता : प्रकृति और ज्ञान, ज्ञान तो दिनोंदिन बढ़ता जाता है और प्रकृति भी काम करती है। प्रकृति तो ज्ञानी में भी काम करती है और अज्ञानी में भी काम करती है। अब प्रकृति पर ज्ञान की विजय किस तरह हो सकती है, वह आप समझाइए। दादाश्री : प्रकृति पर ज्ञान की विजय नहीं होती। प्रकृति अपने स्वभाव में रहती है। ज्ञान, ज्ञान के स्वभाव में रहता है! आत्मा, आत्मा के स्वभाव में रहता है, प्रकृति, प्रकृति के स्वभाव में रहती है। जब यह भ्रांति टूट जाती है कि 'प्रकृति की जो क्रिया होती है, वह सब मैं कर रहा हूँ' तो उसके बाद स्वभाविक क्रिया में आ जाता है। प्रकृति की स्वतंत्रता और परतंत्रता प्रश्नकर्ता : बीच में वह एजेन्ट कौन है, वह समझाइए। दादाश्री : बीच में कोई भी एजेन्ट नहीं है। जिसे एजेन्ट मानते हैं न, वह तो प्रकृति ही एजेन्ट है और उसी के हाथ में सत्ता है। अपने हाथ में सत्ता नहीं है। हम चिपट पड़े हैं। हम ऐसा समझते हैं कि यह कोई बाहरी एजेन्ट आया है, जबकि वह क्या कहती है? आप बाहरी एजेन्ट हो। आपका यहाँ कोई लेना-देना नहीं है। आपको सिर्फ 'देखते' रहना है। हम क्या करते हैं? पूरे दिन 'ए.एम.पटेल' क्या खाते हैं, पीते हैं, वही सब देखते' रहते हैं। कितनी बार उल्टी हुई, कितनी बार वह हुआ, वह सब 'देखते' रहते हैं। इतना ही अधिकार है हमें। प्रश्नकर्ता : जो प्रकृति है, वह तो देह से संबंधित है न? दादाश्री : यह देह, मन-वचन-काया सबकुछ इसी में आ गया। आत्मा के अलावा बाकी का सभी कुछ जिसे जगत् 'मैं पना' मानता है, वह सारी प्रकृति ही है और आत्मा इससे अलग है। उसे खुद जानता नहीं है, बेचारे को भान नहीं है। और प्रकृति यों तो परिणाम से स्वतंत्र है, परिणाम
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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