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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) नहीं तो, ऐसे कृष्ण भगवान ! यानी कौन? नर में नारायण पद कहलाते हैं वे, लेकिन ऐसे सो गए थे। अरे... तीर लगा न! वे क्या ऐसा नहीं जानते थे कि तीर आनेवाला है? उन्होंने नाटक की तरह होने दिया। वे खुद जानते थे, फिर भी कोई बदलाव नहीं किया, लेकिन जिस समय प्रकृति में जो होना है, वह छोड़ता नहीं है। आत्मा और प्रकृति, यों तो दोनों अलग हैं लेकिन नज़दीक होने की वजह से दोनों ऐसे चिपक पड़े हैं अनादिकाल से कि उखड़ते ही नहीं। अतः दोनों के स्वभाव में 'एकता' लगती है। मैं मर जाऊँगा,' इस आत्मा को भी ऐसा ही लगता है। दोनों एक हो गए हैं न! अरे भाई, तू कैसे मर सकता है? लेकिन उसे स्वभाव 'एकता' हो गई है। प्रकृति सर्वस्व प्रकार से परवश ही है। थ्री हंड्रेड एन्ड सिक्सटी डिग्री से परवश ही है। यह तो बस इतना ही है कि लोग अहंकार करते हैं। 'मैं ऐसे कर दूंगा, मैं ऐसा कर दूंगा और मैं वैसा कर दूंगा' ऐसा अहंकार करता है। बस इतना ही है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् जीरो से थ्री सिक्सटी तक पूरी प्रकृति परवश है? दादाश्री : संपूर्ण (प्रकृति) पूरी ही परवश है। यह तो प्रकृति में जो होनेवाला है, उस आधार पर नैमित्तिक वाणी निकलती है तब वह खुद के मन में ऐसे एडजस्ट कर लेता है कि अब मैं जो यह कह रहा हूँ, अब उसी अनुसार हो रहा है। प्रश्नकर्ता : तीर्थंकरों की प्रकृति भी परवश है? दादाश्री : तीर्थंकरों की क्या, सभी की। प्रकृति मात्र परवशता है! प्रश्नकर्ता : नहीं, अर्थात् आत्मा का और उसका कोई लेना-देना नहीं है लेकिन वह..... दादाश्री : कोई लेना-देना नहीं है दोनों को ही। प्रश्नकर्ता : लेकिन तीर्थंकरों की और ज्ञानियों की प्रकृति कुछ हद तक चोखी हो चुकी होती है न?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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