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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) रहता। प्रकृति जब गुस्सा करवाती है तब गुस्सा करके खड़ा रहता है। प्रकृति रुलाती है तब रोता भी है। उसे शरम भी नहीं आती। खुले आम रोता है। ऐसे रोता है कि टप-टप आँसू गिरते हैं। प्रश्नकर्ता : प्रकृति रुलाती है या कर्म रुलाते हैं, दादा? दादाश्री : कर्म का मतलब ही है, प्रकृति। वही मूल प्रकृति कहलाती है। यह प्रकृति ही सबकुछ चलाती है, करती है प्रकृति और खुद क्या कहता है कि मैंने किया। इसी को कहते हैं इगोइज़म।। चाय कौन माँगता है? प्रकृति माँगती है। यह जलेबी कौन माँगता है? भूख किसे लगती है? प्यास किसे लगती है? वह सब प्रकृति को। अपमान करने पर अपमान किसका होता है? प्रकृति का। संडास कौन जाता है? आत्मा जाता होगा, नहीं? यह सब प्रकृति है, जबकि लोग क्या कहते हैं? 'मैं संडास जा आया।' भूख प्रकृति को लगती है या हमें लगती है? प्रश्नकर्ता : प्रकृति को। दादाश्री : और वह कहता है कि मुझे भूख लगी। व्यवहार से कहने में हर्ज नहीं है, ड्रामेटिक बोलने में हर्ज नहीं है। लेकिन अंदर एक्जेक्ट वैसी ही बिलीफ से बोलता है। व्यवहार से तो बोलना ही पड़ता है, नाटक में तो। जब आत्मा को जान ले, तब पुरुष और प्रकृति दोनों अगल हो जाते हैं। उसके बाद प्रकृति, प्रकृति का रोल करती है और पुरुष, पुरुष का रोल करता है। इस ज्ञान के मिलने के बाद तो अब कर्तापन चला गया, 'मैं' पुरुष बना गया और प्रकृति अलग हो गई। आप पुरुष बन गए और प्रकृति बिल्कुल अलग हो गई, इसीलिए पुरुष पुरुषार्थ कर सकता है, वर्ना प्रकृति तो पुरुषार्थ कर ही नहीं सकती न! और प्रकृति का पुरुषार्थ भ्रांत पुरुषार्थ माना जाता है। प्रकृति तो हमें नचाती है बल्कि। प्रकृति अपने ताबे में नहीं है, हम उसके ताबे में हैं। हालांकि अपने ताबे में तो है ही नहीं यह प्रकृति
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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