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________________ आप्तवाणी-८ रहने का स्वभाव आत्मा का है। यह जानने का स्वभाव अन्य किसी जड़ में नहीं है। इस देह में जानने का स्वभाव नहीं है। जानने का स्वभाव आत्मा का स्वभाव है और वही परमात्मा है! आत्मा, कैसा अनंत गुणधाम प्रश्नकर्ता : आत्मा तो ज्ञानवाला ही है न? दादाश्री : वह खुद ही ज्ञान है। खुद ज्ञानवाला नहीं है, खुद ही ज्ञान है! उसे ज्ञानवाला कहेंगे तो 'ज्ञान' और 'वाला' ये दोनों अलग हो गए। अतः आत्मा खुद ही ज्ञान है, वह प्रकाश ही है खुद! उस प्रकाश के आधार पर ही यह सबकुछ दिखता है। उस प्रकाश के आधार पर यह सब समझ में भी आता है, और जाना भी जा सकता है, जान भी पाते हैं और समझ में भी आता है! यानी आत्मा तो परमात्मा है, अनंतगुण का धाम है ! उसके तो बहुत सारे गुण हैं, इतने सारे गुण हैं कि बात मत पूछो!! आत्मा उसके खुद के ही 'स्वाभाविक' गुणों का धाम है, यानी कि वे गुण कभी भी जाएँ नहीं, ऐसे गुणों का धाम हैं! अनंत ज्ञान है, अनंत दर्शन है, अनंत शक्तियाँ हैं, अनंत सुख का धाम है, अव्याबाध स्वरूपी है, ऐसे तरह-तरह के आत्मा के गुण हैं। वे आत्मगुण कब प्रकट होंगे? एक सेकन्ड के लिए भी आपमें एक भी आया नहीं है, आप अभी प्राकृत गुण वेदते हो। 'आपकी' बिलीफ़ के अनुसार आपको गुण प्राप्त होंगे। 'आप' 'चंदूलाल' रहोगे तो आपको प्राकृतगुण प्राप्त होंगे और 'आप' 'शुद्ध चैतन्य' बन जाओगे तो फिर खुद के स्वाभाविक' गुण उत्पन्न होंगे! आपको जहाँ पर बैठना है, वहाँ बैठो। जहाँ आत्मा के गुण नहीं हैं, वहाँ पर आत्मा है ही नहीं। यह सोना अपने गुणधर्म में रहता है, तब तक सोना है, दूसरों के गुण में खुद नहीं होता। इस संसार में जो दिखते हैं, वे दूसरों के गुण हैं सारे, वहाँ पर 'खुद'
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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