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________________ ३१४ आप्तवाणी-८ आपको मूल हक़ीक़त बता देता हूँ। दो प्रकार के आत्मा हैं, एक मूल आत्मा है और उस मूल आत्मा के कारण उत्पन्न होनेवाला दूसरा यह व्यवहार आत्मा है। मूल आत्मा निश्चय आत्मा है, उसमें कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं है। वह जैसा है वैसा ही है और उसकी वजह से व्यवहार आत्मा उत्पन्न हो गया है। जिस तरह हम शीशे के सामने जाएँ, तब दो 'चंदूभाई' दिखते हैं या नहीं दिखते? प्रश्नकर्ता : हाँ, दो दिखते हैं। दादाश्री : उसी तरह यह व्यवहार आत्मा उत्पन्न हो गया है। उसे मैंने 'प्रतिष्ठित आत्मा' कहा है। उसमें खुद की प्रतिष्ठा की हुई है, इसलिए अगर अभी भी 'आप' प्रतिष्ठा करोगे, 'मैं चंदूभाई हूँ, मैं चंदूभाई हूँ' करोगे तो फिर से अगले जन्म के लिए प्रतिष्ठित आत्मा खड़ा हो जाएगा। इस व्यवहार को सत्य मानोगे तो फिर से व्यवहार आत्मा उत्पन्न होगा। निश्चय आत्मा तो वैसे का वैसा ही है। यदि उसका स्पर्श हो जाए न, तो कल्याण हो जाए! अभी तो व्यवहार आत्मा का ही स्पर्श है। यह तो अहंकार उत्पन्न हो गया है। लोग कहते हैं, 'आत्मा को दुःख पड़ रहा है। मेरा आत्मा बिगड़ गया है।' तो भाई, अगर आत्मा बिगड़ा हुआ है, तो कभी भी सुधरेगा ही नहीं। जिसमें बिगड़ने की शक्ति है तो वह वस्तु सुधरेगी ही नहीं और यहाँ पर बिगड़ता है तो फिर वहाँ सिद्धक्षेत्र में भी बिगडेगा। आत्मा वैसा नहीं है। आत्मा जैसा सिद्धक्षेत्र में है, वैसा ही यहाँ पर है। लेकिन वह निश्चय आत्मा है और व्यवहार आत्मा बिगड़ा हुआ है। अब, बिगड़ा हुआ व्यवहार है, उस व्यवहार को शुद्ध करना है। यदि 'ज्ञानी' नहीं मिले तो व्यवहार को शुभ करना है और यदि 'ज्ञानी' मिल जाएँ तो शुद्ध व्यवहार करना है। बस, इतना ही करना है। यानी कि आत्मा में से अशुद्ध पर्याय उठते ही नहीं। सभी अशुद्ध पर्याय व्यवहार आत्मा में से हैं। अब वे पर्याय तो, बहुत ही सूक्ष्म, सूक्ष्मत्तर अवस्था को पर्याय कहते हैं। ये तो सब स्थूल अवस्थाएँ है, अशुद्ध अवस्थाएँ है, स्थूल अवस्थाएँ है। 'मैं चंदूभाई हूँ' यह अवस्था क्या ऐसी-वैसी है?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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