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________________ आप्तवाणी-८ दादाश्री : शुद्धात्मा अर्थात् शुद्ध चेतन ही । शुद्ध इसलिए कहना है कि पहले मन में ऐसा लगता था कि 'मैं पापी हूँ, मैं ऐसा नालायक हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ।' ऐसे तरह-तरह के खुद पर जो आरोप थे, वे सभी आरोप निकल गए। शुद्धात्मा के बजाय सिर्फ 'आत्मा' कहेंगे तो खुद की शुद्धता का भान भूल जाएगा, निर्लेपता का भान चला जाएगा। इसलिए 'शुद्धात्मा' कहा है। प्रश्नकर्ता : तो शुद्धात्मा का मर्म क्या है? दादाश्री : 'शुद्धात्मा' का मर्म यह है कि वह असंग है, निर्लेप है, जब कि ‘आत्मा' ऐसा नहीं है । 'आत्मा' लेपित है और 'शुद्धात्मा', वह तो परमात्मा है। सभी धर्मवाले कहते हैं न, 'मेरा आत्मा पापी है', फिर भी शुद्धात्मा को कोई परेशानी नहीं है। २८२ शुद्धात्मा यही सूचित करता है कि हम अब निर्लेप हो गए, पाप गए सभी। यानी शुद्ध उपयोग के कारण शुद्धात्मा कहा है । वर्ना 4 'आत्मा' वाले को तो शुद्ध उपयोग होता ही नहीं । आत्मा तो, सभी आत्मा ही हैं न ! लेकिन जो शुद्ध उपयोगी होता है, उसे शुद्धात्मा कहा जाता है। आत्मा तो चार प्रकार के हैं, अशुद्ध उपयोगी, अशुभ उपयोगी, शुभ उपयोगी और शुद्ध उपयोगी, ऐसे सब आत्मा हैं। इसलिए अगर सिर्फ 'आत्मा' बोलेंगे तो उसमें कौन - सा आत्मा ? तब कहे, 'शुद्धात्मा ।' यानी कि शुद्ध उपयोगी, वह शुद्धात्मा होता है । अब उपयोग फिर शुद्ध रखना है। उपयोग शुद्ध रखने के लिए शुद्धात्मा है, नहीं तो उपयोग शुद्ध रहेगा नहीं न? एक व्यक्ति ने पूछा कि, 'दादा, बाकी सब जगह आत्मा ही कहलवाते हैं और सिर्फ आप ही शुद्धात्मा कहलवाते हैं, ऐसा क्यों? ' मैंने कहा कि, 'वे जिसे आत्मा कहते हैं न, वह आत्मा ही नहीं है और हम शुद्धात्मा कहते हैं, इसका कारण अलग है।' हम क्या कहते हैं? कि तुझे एक बार ‘रियलाइज़' करवा दिया कि तू शुद्धात्मा है और ये चंदूभाई अलग है, ऐसा तुझे बुद्धि से भी समझ में आ गया। अब चंदूभाई से बहुत ख़राब
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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