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________________ आप्तवाणी-८ २६९ 'हम' आधार दें, उसके बाद ही वे कुछ कर सकते हैं, वर्ना खत्म हो जाते हैं। निराधार होने के बाद वे हमें कुछ भी नहीं कर सकते। लेकिन जब 'हम' आधार देते हैं कि 'मैंने यह किया', तभी से वे हमें हिला देते हैं। प्रश्नकर्ता : वह जो आधार दिया जाता है, वह पूर्वकर्म है क्या? दादाश्री : उसे अज्ञानता कहते हैं। कर्मों की तो निर्जरा होती रहती है, लेकिन 'हम' आधार देते हैं कि 'मैं करता हूँ।' जो कर्म उदय में आए हैं, वे अपना रोल अदा करेंगे ही, लेकिन उसमें 'हम' कहते हैं कि 'मैंने' किया है। प्रश्नकर्ता : तो जो कर्म निष्कामभाव से भोगने चाहिए, वे हम भोगते नहीं और वृत्तियाँ उनमें चली जाती हैं, ऐसा हुआ न? दादाश्री : वह तो, ज्ञान के बिना कर्ताभाव छूटना मुश्किल है। ज्ञान हो तो कर्ताभाव नहीं रहता। कर्ताभाव नहीं रहता, इसलिए संवर रहता है और जहाँ पर संवर है, वहाँ पर समाधि रहती है। प्रश्नकर्ता : संवर की भूमिका तक तो पहुँचा जा सकता है, लेकिन स्थिर नहीं रहा जा सकता। दादाश्री : नहीं, यदि संवर होगा तो समाधि रहेगी ही। समाधि रहे तो समझना कि उसे संवर है। प्रश्नकर्ता : लेकिन किन्हीं कारणों से कर्मबंध हो जाए तो, उस समय क्या करना चाहिए? दादाश्री : कुछ करना तो है ही नहीं। आत्मा हो जाने की ज़रूरत है। प्रश्नकर्ता : इसके लिए मानसिक रूप से तो सोचना पड़ेगा न, कि इसका उपाय क्या हो सकता है? दादाश्री : एक बार आत्मा हो गए न, फिर कुछ सोचना नहीं है। सोचने की भूमिका तो कब तक है? कि 'यह आत्मा है या यह आत्मा
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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