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________________ २६२ आप्तवाणी-८ सर्व अनुभवों से न्यारा, आत्मानुभव प्रश्नकर्ता : हम एक तरफ़ ऐसा कहते हैं कि आत्मा के अलावा अन्य कुछ भी नहीं है और दूसरी तरफ़ हम आत्मानुभव शब्द का प्रयोग करते हैं, इससे द्विधा होती है। यदि आत्मा के अलावा अन्य कुछ भी नहीं है तो अनुभव नाम की वस्तु भी विचारों का प्रक्षेपण है, मन का प्रक्षेपण है या मात्र दख़ल है, क्या ऐसा है? दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मानुभव शब्द का उपयोग तो करना पड़ता है न, इसलिए पूछा। दादाश्री : इस शब्द का उपयोग इसलिए करना पड़ता है कि जब तक 'आत्मा' प्राप्त नहीं हो जाए, तब तक सीढी की ज़रूरत है। 'आप' जिस जगह पर खड़े हो, वहाँ से आपको समझाने के लिए बीच में स्टेपिंग बताने की ज़रूरत है। और आत्मानुभव यानी हम क्या कहना चाहते हैं? अभी ‘आपको' देहाध्यास है, तो कैसा अनुभव रहता है? 'यह देह मैं हूँ, यह नाम भी मैं हूँ, यह मन भी मैं हूँ' ऐसा अनुभव बरतता है। और आत्मानुभव यानी क्या कहना चाहते हैं कि उस देहाध्यास के अनुभव की तुलना में यह अनुभव न्यारा ही बरतता है। यानी कि ऐसा अनुभव बरतने के बाद आत्मा प्राप्त हुआ कहलाता है। वर्ना यदि अनुभव ही नहीं बरता होगा तो आत्मा किस तरह से प्राप्त होगा? अतः अनुभव शब्द को बीच में रखना पड़ता है, 'उसे' खुद को समझाने के लिए। क्योंकि सीधा आत्मा नहीं कह सकते। अभी जो अनुभव है, देहाध्यास का, उसके बजाय कुछ नई ही प्रकार के अनुभव होते हों, तब मन में ऐसा होता है कि उस अनुभव की तुलना में यह अलग अनुभव है और यह आत्मानुभव है, ऐसा आपको' यक़ीन हो जाए तो प्रतीति बैठती है, नहीं तो प्रतीति भी नहीं बैठती। प्रश्नकर्ता : हम विचार और लागणी अनुभव करते हैं, लेकिन आत्मानुभव इन अन्य सभी अनुभवों के उस पारवाली स्थिति होनी चाहिए न?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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