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________________ २५८ आप्तवाणी-८ पर फिर चिंता और, दु:ख नहीं होते। आपको अभी जो अनुभव हैं, उनमें से एक भी अनुभव वहाँ पर नहीं होता। चिंता नहीं होती, उपाधि नहीं होती, व्याधि नहीं होती, आधि नहीं होती, कुछ भी नहीं होता। आपको इसमें समझ में आया न? क्या-क्या नहीं होता? अभी जो है, यह सभी वहाँ पर होने के बावजूद वहाँ पर पीड़ा और उपाधि नहीं होते। वह जाननेवाला, कितना शक्तिवान दादाश्री : अभी तक आपको देहाध्यास रहता है न? प्रश्नकर्ता : अभी तो देह के साथ एकात्मता हो गई है। दादाश्री : हाँ, उसे ही देहाध्यास कहते हैं और देहाध्यास मिटे तो फिर छुटकारा हो गया। प्रश्नकर्ता : आपने पूछा कि देहाध्यास रहता है? तब इन्होंने ऐसा कहा कि देह के साथ एकात्मता हो गई है। तो यह एकात्मता है ही, वह जाना किस तरह? दादाश्री : 'मूल आत्मा' जुदा है न, इसीलिए वह जानता है। मूल आत्मा इससे जुदा है। 'आपका' माना हुआ आत्मा, वह 'मिकेनिकल आत्मा' है। इसे कुछ लोगों ने 'व्यवहार आत्मा' कहा है। उसे फिर हमने 'प्रतिष्ठित आत्मा' कहा है, लेकिन उस आत्मा को 'आप' ऐसा मानते हो कि 'यह मैं हूँ।' वह खाता है, पीता है, सोता है, उसे 'आप' ऐसा मानते हो कि 'मैं सो गया।' और उसे ही आत्मा कहा जाता है, लेकिन वह 'व्यवहार आत्मा' है। खरा आत्मा' इस संसार की बातों में पड़ता ही नहीं। 'खरा आत्मा' इस सबको 'जानता' ही रहता है और क्योंकि वह 'जानता' है न, इसलिए आपको' अंदर 'पता' चलता है कि 'मुझे देहाध्यास ही रहता है, तन्मयाकार परिणाम ही रहता है। यानी कि यह जाना किसने? जाननेवाले ने जाना। तन्मयाकार परिणाम भोगनेवाले ने भोगा। तब फिर वह जाननेवाला कितना शक्तिवान होगा! उस जाननेवाले को एक बार पहचान जाए तो पूरा हो गया। एक ही बार पहचान हो जाए कि काम हो गया।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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