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________________ २२६ आप्तवाणी-८ जो तरणतारण हो चुके हों, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' के पास जाना, तो हल निकल आएगा! जो मोक्ष में न रखें, वे मोक्षदाता ही नहीं प्रश्नकर्ता : उस आत्मा को जानने की कुछ चाबियाँ तो होंगी न? दादाश्री : उसकी चाबियाँ वगैरह कुछ नहीं होता। वह तो 'ज्ञानी' के पास जाकर उनसे कह देना कि, 'साहब, मैं बिल्कुल बेअक्ल मूर्ख व्यक्ति हूँ। अनंत जन्मों से भटका, लेकिन आत्मा का एक अंश, बाल जितना भी मैंने जाना नहीं। इसलिए आप मुझ पर इतनी कुछ कृपा कीजिए।' तो बस, काम हो गया। क्योंकि 'ज्ञानीपुरुष', वे तो मोक्ष का दान देने के लिए ही आए हैं। और वापस फिर लोग शोर मचाते हैं कि, 'तब फिर हमारे संसार व्यवहार का क्या होगा?' आत्मा जानने के बाद जो बाकी बचा, वह सारा व्यवहार माना जाता है और व्यवहार के लिए भी फिर 'ज्ञानीपुरुष' पाँच आज्ञा देते हैं कि, 'भाई, ये मेरी पाँच आज्ञाएँ पालना। जा, तेरा व्यवहार भी शुद्ध और निश्चय भी शुद्ध और जोखिमदारी सब हमारी।' और मोक्ष यहीं से बरतना चाहिए। मोक्ष यहीं से न बर्ते तो वह सच्चा मोक्ष नहीं है। यहाँ पर 'मुझसे मिलने के बाद अगर आपको मोक्ष न बर्ते तो ये 'ज्ञानी' सच्चे नहीं हैं और यह मोक्ष भी सच्चा नहीं है। यहीं पर, इस पाँचवे आरे में ही मोक्ष बरतना चाहिए। यहीं पर इस कोट-टोपी के साथ मोक्ष बरतना चाहिए। बाकी, वहाँ पर तो बरतेगा, इसका क्या ठिकाना? इसलिए 'ज्ञानीपुरुष' से ऐसा नक्की करवा लेना है कि 'खुद' किस प्रकार से 'आत्मा' है। अनादि से स्वरूप निर्धारण में ही भूल प्रश्नकर्ता : मुझे ऐसा लगता है कि आत्मस्वरूप का निर्णय करने में जल्दबाज़ी क्यों करनी चाहिए? दादाश्री : हाँ, जल्दबाज़ी करने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ पर तो
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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