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________________ तक 'आप भगवान' और 'मैं आपका भक्त' तभी तक जुदाई! 'मैं खुद ही परमात्मा हूँ', ऐसा भान होने के बाद फिर भेद नहीं रहता, और बन गया वीतराग! निर्भय!! और महामुक्त!!! ईश्वर और परमेश्वर - इसमें ईश्वर राग-द्वेषवाला, कर्तापन के अहंकार सहित, विनाशी वस्तुओं में मूर्छावाला और परमेश्वर अर्थात् वीतराग-अकर्ता, खुद के अविनाशी पद को ही भजे, वह! फिर भी ईश्वरपद तो विभूतिस्वरूप है! आर्तध्यान और रौद्रध्यान से निवृत्ति, वह वीतरागत्व की प्रथम कड़ी है। 'मैं चंदूलाल हूँ', ऐसा बोलने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ऐसी बिलीफ़ बरतनी नहीं चाहिए! परमात्मा दशा प्राप्त करने के पथ में आनेवाले 'माइलस्टोन' की पहचान पथिक को पथ की पूरी-पूरी ‘सिक्योरिटी' करवाती जाती है। जब तक भौतिक सुखों की वांछना है, वृत्तियाँ भौतिक सुख ढूँढने के लिए ही भटकती हैं, तब तक बहिर्मुखी आत्मा है, मूढ़ात्मा है। मूढ़ात्मदशा में जीवात्मा को मात्र अस्तित्व का ही भान रहता है, पुद्गल वळगणा (बला, पाश, भूतावेश) को मात्र खुद का ही स्वरूप मानता है, वह प्रथम निशानी ! द्वितीय निशानी यह कि जब मूढ़ात्मा में से अंतरात्मदशा में आता है, तब जो वृत्तियाँ बाहर भटक रही थीं, वे वापस निजघर की ओर मुड़ने लगती हैं। मूढ़ात्मा को 'ज्ञानीपुरुष' निमित्तभाव से प्रतीति करवाते हैं कि यह पुद्गलरूपी वळगणा खुद की नहीं है, खुद तो परमात्मा ही है, तब 'मैं 'पन परमात्मा में प्रथम प्रतीतिभाव से अभेद होता है। अब अस्तित्व का ही नहीं, परन्तु उसे वस्तुत्व का, यानी कि 'मैं कौन हूँ' का भान रहता है। यह अंतरात्मदशा यानी कि 'इन्टरिम गवर्नमेन्ट' की स्थापना। 'इन्टरिम गवर्नमेन्ट' को दो कार्य करने होते हैं। व्यवहार के उदय में, उसमें उपयोग रखकर व्यवहार का समभाव से निकाल करना और खाली समय में आत्मउपयोग में रहना। इस अंतरात्मदशा में आने से खुद अमुक अंशों तक स्वतंत्र बनता है और अमुक अंशों तक परतंत्र रहता है। फिर भी परमात्मदशा की २५
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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