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________________ २१८ आप्तवाणी-८ दादाश्री : साम्राज्य अविनाशी का है ही नहीं बिल्कुल भी! वर्तन भी अविनाशी का नहीं है। यह तो साम्राज्य ही पूरा विनाशी का है। इसलिए हम विनाशी और अविनाशी, ऐसे दो भाग अलग कर देते हैं। जब पाप भस्मीभूत करते हैं, तब ये दोनों भाग जुदा पड़ जाते हैं, तो फिर दोनों अलग हो जाते हैं। फिर आत्मा ज्ञाता-दृष्टा रहता है। यानी कि अविनाशी अपने मूल स्वभाव में आ जाता है और विनाशी जो है, वह इस क्रिया में रहता है। इस विनाशी का स्वभाव, जानने का नहीं है। लागणी का या ऐसा कोई स्वभाव इस विनाशी में नहीं है। फिर जो विनाशी है, वह इन क्रियाओं में रहता है और अविनाशी ज्ञाता-दृष्टा रहता है, दोनों अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं। और इस भ्रांति में तो क्या करता है? 'जानता हूँ मैं और करता हूँ मैं', इसलिए फिर ये क्रोध-मान-माया-लोभ वगैरह सारी कमज़ोरियाँ उत्पन्न हो गई हैं। परमात्मा पहुँचाएँ प्रकाश और परमानंद प्रश्नकर्ता : तो अविनाशी का कार्य क्या है, विनाशी के साथ रहकर? दादाश्री : वह सिर्फ प्रकाश देता है, और कुछ नहीं करता। उसके खुद के पास असीम प्रकाश है, वही (अविनाशी) प्रकाश देता है। और दूसरा, वह आनंद देता है, लेकिन आनंद अपने पास पहुँचता नहीं है, उसका तिरोभाव हो जाता है। और उस आनंद का हम क्या उपयोग करते हैं? वह आनंद 'खुद' में से ही आ रहा है, ऐसा मानते नहीं हैं, अतः हम कहते हैं कि इस जलेबी में से आनंद आया। ऐसे तिरोभाव करते हैं, इसलिए हमें ऐसा लगता है कि आनंद जलेबी में से आ रहा है, लेकिन जलेबी में से आनंद नहीं आता, खुद में से ही आनंद का आरोपण होता है। यानी कि किसी वस्तु में आनंद होता ही नहीं है, सोने में या किसी में भी आनंद नहीं होता। यदि सोने में आनंद होता तो सोने का बिस्तर बनाते तो नींद अच्छी आती न? प्रश्नकर्ता : नहीं आती है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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