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________________ का भान पाना है। सिर्फ शब्द-आत्मा को जानने से कुछ नहीं होता। अभेद का निरुपण करवानेवाले वेदों के द्वारा भी भेदबुद्धि का ही उपार्जन होता है, अबुधता प्राप्त करने पर ही अभेदबुद्धि फलित होगी। ज्ञानीपुरुष ने, 'वेद' 'थ्योरिटिकल' हैं, विज्ञान 'प्रेक्टिकल' है, ऐसा कह दिया। वेद बुद्धिगम्य ज्ञान, 'इन्डायरेक्ट' प्रकाश है और ज्ञान 'डायरेक्ट' प्रकाश है! जहाँ नहीं पहुँचे वेद, वहाँ पहुँचे 'ज्ञानी'! चार वेद, चार अनुयोग आत्मतत्व को दिखाते हैं, परन्तु उन्हें प्राप्त नहीं करवा सकते। श्रुतवाणी चित्त को निर्मल बनाती है, ज्ञान का उत्तम अधिकारी बनाती है, परन्तु मूल वस्तु का साक्षात्कार तो असाधारण कारणरूप ज्ञानीपुरुष उनकी संज्ञा से करवाते हैं! वहाँ पर शब्दरूप वेद नि:शब्द आत्मा का किस प्रकार से वर्णन कर सकते हैं? वेद ज्ञानस्वरूप और वेत्ता विज्ञानस्वरूप हैं ! विज्ञान तो स्वयं क्रियाकारी होता है, ज्ञान नहीं! वेत्ता वेद को जानते हैं, वेद वेत्ता को नहीं। तमाम दर्शन, तमाम नय, तमाम दृष्टियाँ एक हैं और भिन्न भी हैं। सीढ़ी एक ही है, लेकिन सोपान भिन्न-भिन्न हैं !!! कृष्ण भगवान ने वेद को भी त्रिगुणात्मक कह दिया और आत्मा पाने के लिए अर्जुन को वेद से परे जाने को कहा! वेदांत बुद्धि को बढ़ावा देनेवाले हैं। परन्तु वेदांत और जैन, दोनों मार्गों से स्वतंत्ररूप से समकित हो सकता है। आत्मा न तो द्वैत है, न ही अद्वैत! आत्मा द्वैताद्वैत है!!! द्वैत-अद्वैत दोनों विकल्प हैं, जब कि आत्मा निर्विकल्प है। द्वैत-अद्वैत दोनों द्वंद्व है, आत्मा द्वंद्वातीत हैं। जब तक सांसारिक असर होते हैं, तब तक 'अद्वैत हूँ', ऐसा मान ही नहीं सकते। अद्वैत, वह निराधार या निरपेक्ष वस्तु नहीं है, द्वैत की अपेक्षा से है। 'रिलेटिव व्यू पोइन्ट' से आत्मा द्वैत और 'रियल व्यू पोइन्ट' से अद्वैत है! इसलिए 'ज्ञानी' ने आत्मा को द्वैताद्वैत कहा है। 'स्व'-वह अद्वैत है और 'पर'-वह द्वैत है। स्व में ही उपयोग रखने के लिए इसे अद्वैत कहा गया है। जब तक देह और केवळज्ञान दोनों हैं, तभी तक द्वैताद्वैत है, फिर मोक्ष में कोई विशेषण नहीं रहता है। अद्वैत स्वयं विशेषण है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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