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________________ १४६ आप्तवाणी-८ सही कहता है न अखा? यानी कि जीव-शिव की भेदबुद्धि छूटी तो फिर तू शुद्धात्मा है, तू ही परमात्मा है! जब कि यह तो कहेगा, 'भगवान जुदा और मैं जुदा।' लेकिन जब जीव-शिव की भेदबुद्धि समझ में आ जाएगी कि इनमें कोई भेद है ही नहीं, तब हो जाएगा मुक्त! बात को एक दिन समझना तो पड़ेगा न? वर्ना, अंत में आत्मा तो जानना पडेगा न? आत्मा को जाने न, तो जीव-शिव की भेदबुद्धि टूट जाएगी, और जीव-शिव की भेदबुद्धि टूटी तो भय टूट जाएगा, और फिर वीतरागता रहेगी। __भगवान जुदा और मैं जुदा, कहेंगे तो कब पार आएगा? वह तो अनंत जन्मों से है ही न! वह तो मैं और तू, दो हैं ही न! 'तू ही, तू ही' कितने ही जन्मों से गाता आ रहा है। आप ही तो इस दुनिया के मालिक हो! लेकिन यह तो पूरा मालिकीपन ही उड़ जाता है! किस तरह का है यह? यानी कि 'मैं ही शिव हूँ' ऐसा भान होना चाहिए, उसीको अनुभूति कहते हैं। मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान हो जाए, वही अनुभूति है। मैं जीव हूँ', ऐसा भान तो जीवमात्र को है ही। ...लेकिन रास्ता एक ही है प्रश्नकर्ता : जीव और शिव का भेद मनुष्यदेह के अलावा और किसी देह में तोड़ा जा सकता है या नहीं? दादाश्री : नहीं। और किसी देह में नहीं हो सकता। प्रश्नकर्ता : सूक्ष्मदेह से तापस कर सकता है? दादाश्री : तापस? यह जानने के लिए? नहीं। इस भेद को तोड़ने के लिए तापस का तो काम ही नहीं है। वह भी नहीं कर सकेगा। प्रश्नकर्ता : इस भेद को तोड़ने के लिए सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं? इसे सूक्ष्म देह से जाना जा सकता है?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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