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________________ आप्तवाणी-८ सिर्फ 'खुद कौन है?' इतना ही जान लेना है। अगर 'तू' जीव है और जी रहा है तो मर जाएगा और अगर 'तू' आत्मा है तो अमर हो जाएगा। जीवन, वह अवस्था है और जो जीता - मरता है उसे जीव कहते हैं । संसारी अवस्था में जीव कहलाता है । उसमें पाप-पुण्य सबकुछ एक साथ होता है, पौद्गलिक वस्तु साथ में होती है, कर्मसहित होता है, उसे जीव कहते हैं। १४४ प्रश्नकर्ता : तो मन किसे कहते हैं ? दादाश्री : मन तो, जिसमें विचार आते हैं न उसे मन कहते हैं। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, ये तो अंत:करण की चीजें हैं । और जीव तो, इन सबका जो ऊपरी है, वह खुद ही जीव है, और आत्मा वह अलग चीज़ है। जीव से आत्मा अलग है। यह जो जीता - मरता है, वह जीव है । आत्मा मरता नहीं है। 'आत्मा' तो अमर है और वही 'अपना' स्वरूप है। प्रश्नकर्ता : तो जीव ही पुद्गल कहलाता है न? दादाश्री : हाँ, जीव ही पुद्गल कहलाता है । लेकिन हमें जीवंत दिखता है। चलता है, फिरता है, बोलता है, सबकुछ करता है । लेकिन है यह पुद्गल। जीव अर्थात् सिर्फ पुतला खड़ा हो गया है! भ्रांति टूटने से मिटें भेद प्रश्नकर्ता : जीव को परमेश्वर किस प्रकार से कह सकते हैं? जीव तो एक आभास है। दादाश्री : भेदबुद्धि से जीव कहा जाता है। जब तक भेदबुद्धि है कि मैं अलग हूँ और भगवान अलग हैं, तब जीव कहलाता है, और अभेद बुद्धि हो जाए कि 'मैं ही भगवान हूँ' तब शिवबुद्धि हो जाती है। प्रश्नकर्ता : ‘मैं आत्मा हूँ' उस दृष्टि से आत्मा में भेद नहीं है? दादाश्री : ‘मैं आत्मा हूँ' ऐसा भान हो जाए न तो जीव-शिव का भेद खत्म हो जाए!
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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