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________________ आप्तवाणी-८ १३७ दादाश्री : लेकिन आवरण ऐसे ही दूर नहीं हो जाते न! पहले उसकी दृष्टि बदलती है। अभी दृष्टि कैसी है कि आपकी दृष्टि इस 'साइड' में है, इसलिए इस तरफ़ का ही दिखता है। 'मैं चंदूभाई हूँ' वही दृष्टि है न आपकी या कुछ और हूँ, ऐसी दृष्टि है? प्रश्नकर्ता : आत्मा भी हूँ न! दादाश्री : नहीं, लेकिन अभी तो 'चंदूभाई' के नाम की चिट्ठी 'आप' ही ले लेते हो न? अभी अगर कोई गालियाँ दे तो आप पर असर होगा? प्रश्नकर्ता : होगा। दादाश्री : यदि आप आत्मा हैं तो आप पर असर नहीं होना चाहिए, अतः 'आप' 'चंदूभाई' हो। अब 'मैं चंदूभाई हूँ' बोलने में हर्ज नहीं है, वह तो मैं भी क़बूल करता हूँ कि 'मैं ए.एम.पटेल हूँ' लेकिन मुझे 'मैं ए.एम.पटेल हूँ' ऐसी बिलीफ़ नहीं है। और आपको 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसी बिलीफ़ है। मुझे एक भाई ऐसा कह रहे थे कि, 'जीव और ब्रह्म एक ही हैं, ऐसा तो सिर्फ वेदांत में ही कहा गया है। और कोई यह जानता ही नहीं।' मैंने कहा, 'जीव और ब्रह्म दोनों एक ही हैं, इसे तो सभी जानते हैं।' ये बढे लोग कहते हैं न, 'मैं मर जाऊँगा, मर जाऊँगा डॉक्टर साहब। मुझे बचाइए?' जिसे मन में ऐसा लगता है कि 'मैं मर जाऊँगा', तो वह जीव है। जिसे मरने का भय लगता है, वे सभी जीव हैं। और मरने का भय लगना बंद हो गया तो वही का वही जीव फिर ब्रह्म बन जाता है। खुद शिव है, लेकिन भ्रांति से जीव है प्रश्नकर्ता : ब्रह्म को जीव क्यों बनना पड़ा? दादाश्री : आप तो शिव ही हो लेकिन आपको 'मैं शिव नहीं हूँ' ऐसा यक़ीन हो गया है, भ्रांति हो गई है आपको। 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा आप मानते हो। इन लोगों ने नाम दिया तो क्या हमें मान लेना चाहिए? आप शिव ही हो, लेकिन अगर जीव और शिव का भेद समझोगे तब।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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