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________________ आप्तवाणी-८ १२५ भगवान की भाषा में असत्य माना जाता है। यह सापेक्षित है, निरपेक्ष नहीं है! किसी पक्ष में पड़ना, वह तो गलत ही है, पक्ष का मतलब 'स्टेन्डर्ड' (कक्षा, वर्ग, श्रेणी) है। और 'स्टेन्डर्ड' में रहे तो एकांतिक कहलाएगा, फिर भी लोगों को तो जो नियम हैं न, उतने में ही रहना चाहिए। और आत्यंतिक में नियम नहीं होते, वे तो अनेकांत होते हैं। उसमें किसी भी प्रकार का आग्रह नहीं होता। और वह 'एक्ज़ेक्टनेस' पर चलता रहता है। उससे आत्यंतिक कल्याण होगा। बाकी, ये सारे पक्ष तो 'स्टेन्डर्ड' हैं। निष्पक्षपाती हो जाए, तब काम का है। भगवान निष्पक्षपाती हैं। जब निष्पक्षपाती हो जाएगा, तब 'आउट ऑफ स्टेन्डर्ड' हो जाएगा। मैं तो जो 'करेक्ट' है, वही सब कहने आया हूँ। और आप ऐसा कहोगे कि 'नहीं, मेरा सच है।' तो मैं आपके साथ बैठा नहीं रहूँगा, मेरे पास ऐसा खाली समय नहीं है। फिर आपके साथ वाद-विवाद में नहीं पगा। आपके 'व्य पोइन्ट' से आप 'करेक्ट' हो ऐसा कहकर हम छोड़ देते हैं। आपको यदि सच समझना हो तो हम समझाएँगे, नहीं तो फिर टाइम बिगड़ेगा, 'वेस्ट ऑफ टाइम एन्ड एनर्जी!' ऐसा उल्टा ज्ञान तो बहुत लोगों की दृष्टि में 'फ़िट' हो चुका है, मैं कहाँ वापस सबको बदलने जाऊँ? यह तो यदि आपको 'हेल्प' चाहिए तो आप मुझसे पूछो। यानी कि द्वैत और अद्वैत को समझना चाहिए। इस काल में अद्वैत तो बोला जाता होगा? अद्वैत तो पहले भी नहीं था और अद्वैत तो मैं भी नहीं बोल सकता। हर एक बात जो है उसे कसौटी पर लिए बगैर एक्सेप्ट करें तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। कसौटी पर लेना नहीं आए तो 'यह ऐसा ही है', ऐसा नहीं कह सकते। फॉरिन के साइन्टिस्ट भी 'यह ऐसा ही है' ऐसा नहीं कहते। वे कहेंगे, 'हमें यह ऐसा लगता है।' ब्रह्म सत्य है और जगत् भी सत्य है, लेकिन... यह तो बात ही मूलतः गलत है, ही है सारी। वह बिल्कुल गलत
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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