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________________ आप्तवाणी-८ ११७ नहीं है। मैं जो हूँ वही सत्य है, अन्य जो कुछ भी इसमें प्रतिभासित होता है, वह सत्य नहीं है', उसे अद्वैत कहता हूँ। दादाश्री : तो फिर अब सत्य खोजने का रहा ही कहाँ? यदि 'मैं ही सत्य हूँ' तो फिर सत्य को ढूंढने का रहा ही नहीं। तो फिर पुस्तक किसलिए पढ़ते हो? आपका सिद्धांत यही कहता है न, 'मैं ही सत्य हूँ? प्रश्नकर्ता : सिद्धांत की निष्ठा के लिए, सिद्धांत दृढ़ हो उसके लिए पुस्तक पढ़नी है न? दादाश्री : लेकिन यह सिद्धांत तो ठीक नहीं कहलाएगा। क्या नाम है आपका? प्रश्नकर्ता : चंदूभाई। दादाश्री : तो आप चंदूभाई हो, यह सत्य है? प्रश्नकर्ता : चंदूभाई तो नाम है, और नाम, वह सत्य नहीं है। दादाश्री : तब क्या सत्य है? आप सत्य बनकर फिर बोलो। प्रश्नकर्ता : सत्य तो शब्द में आता ही नहीं न! दादाश्री : फिर भी तब आप कौन हो? 'चंदूभाई बेअक्ल हैं' कहें तो आपको बुरा लगता है। यदि आप पर असर हो जाता है, तो आप चंदूभाई ही हो। प्रश्नकर्ता : जब तक असर होता है, तब तक 'मैं चंदूभाई हूँ', ऐसा दादाश्री : हाँ। और गालियाँ दे फिर भी असर नहीं हो, मारे फिर भी असर नहीं हो, जेब कट जाए फिर भी असर नहीं हो, तब मैं जानूँगा कि अद्वैतवाद के कोने में आ गए हैं। यह तो अभी तक अद्वैत को समझता ही नहीं। अब आपको द्वैत और अद्वैत समझाता हूँ। समझने की इच्छा है न?
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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