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________________ आप्तवाणी-८ ७९ अधोगामी तो अहंकार के आधार पर प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा का तो सहज स्वभाव है न? तो फिर श्रेय की साधना किसलिए करनी पड़ती है? दादाश्री : आत्मा के लिए न तो श्रेय है, न ही प्रेय है। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है, निरंतर ऊर्ध्वगामी स्वभाव में आत्मा है। आत्मा ऊर्ध्वगामी स्वभावी है, जब कि पुद्गल का स्वभाव अधोगामी है। प्रश्नकर्ता : तो ऊर्ध्वगामी की परिभाषा बताइए । I दादाश्री : ऊर्ध्वगामी अर्थात् स्वभाव से ही मोक्ष में जाए, ऐसा है । 'आप' यदि कोई दख़ल नहीं करो तो आत्मा स्वभाव से ही मोक्ष में जाएऐसा है, उसमें ‘आपको कुछ करना पड़े, ऐसा नहीं है । और पुद्गल स्वभाव से ही अधोगाति में ले जाए ऐसा है । जितना पुद्गल का ज़ोर बढ़ा उतना नीचे दबता हैं, जितना पुद्गल का ज़ोर कम हुआ उतना ऊँचे चढ़ता हैं, और जब वह पुद्गल रहित हो जाता है, तब मोक्ष में जाता है। प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा तो ऊर्ध्वगामी स्वभाव का ही है, तो फिर वापस नीचे अधोगति में क्यों जाता है ? दादाश्री : जितने नुकसानदायक विचार हों, मनुष्य को या किसी भी जीव को नुकसान पहुँचाने का विचार किया या किसीको किंचित् मात्र भी दुःखदायी हो, ऐसा विचार भी किया तो वज़नदार परमाणु चिपक जाते हैं, जिससे वज़नदार हो जाता है, वे फिर नीचे ले जाते हैं । और दुनिया का भला करने का विचार आएँ तो हल्के परमाणु चिपकते हैं, वे ऊपर ले जाते हैं। प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहा जाता है न कि आत्मा तो निरंतर मोक्ष की तरफ़ ही जा रहा है? दादाश्री : ज़रूर, वह आगे ही बढ़ रहा है, लेकिन वज़नदार परमाणु इकट्ठे करता है, इसलिए नीचे जाता है। खुद का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है और यह पुद्गल उसे नीचे खींचता है, जिससे यह खेंचा - खेंची चली है।
SR No.030019
Book TitleAptavani Shreni 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages368
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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