SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४] टालो कंटाला! कंटालारहित जीवन, संभव है? दादाश्री : कभी कंटाला-वंटाला आता है क्या? प्रश्नकर्ता : कंटाला (बोरियत) तो आता है न! जो चीज़ अप्रिय हो, उससे कंटाला आता है। दादाश्री : वह तो नापसंदगी उत्पन्न होती है। इस जगत् में कोई चीज़ प्रिय लगाने जैसी नहीं है, उसी प्रकार अप्रिय लगाने जैसी भी नहीं है। अपनी भूलों के कारण प्रिय-अप्रिय दिखता है। आपका बेटा है, वह आपको अभी प्रिय लगता है। बचपन से वह अभी तक आपको प्रिय ही लगा है, लेकिन एक दिन जब सामने बोले तब? तब अप्रिय लगेगा न? अब, वह नहीं बदला है, आप बदल गए हो। वह सामने बोलता है, उसमें वह नहीं बदला, वह तो उसकी प्रकृति है, वह तो आप ही बदल गए हो। जो आपको प्रिय लगता था, वह अभी अप्रिय क्यों लग रहा है? आप में ही कुछ भूल है! आपके इगोइज़म को आघात लगता है। आपको समझ में आया न? खुद की स्त्री भी अप्रिय लगने लगती है, सबकुछ अप्रिय लगने लगता है। अंत में जो खुद की प्रियातिप्रिय देह है, वह भी अप्रिय लगने लगती है। प्रश्नकर्ता : ऐसे अप्रिय लगना, वह क्या अपनी भूल है? दादाश्री : हाँ। क्योंकि वह प्रिय लगती थी, इसलिए अप्रिय हो जाती है। प्रिय-अप्रिय दोनों ही द्वंद्व नहीं चाहिए। सबकुछ नॉर्मल
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy