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________________ व्यापार की अड़चनें (19) 311 * * * * जा सके, भाव से उतना करते रहना। हाय-हाय तो कौन करता है? कि जिसे अनाज या किसी चीज़ की कमी पड़ रही हो, वह हाय-हाय करता है। इस तरह से अनाज कम पड़े, वैसा दिन तो आपका नहीं आएगा न! कपड़ों की कमी पड़ जाए, क्या ऐसे दिन आते हैं? व्यापार, न्याय-नीति से होना चाहिए आपको व्यापार करना हो तो अब निर्भयता से करते रहना, कोई भय मत रखना और व्यापार न्यायसहित करना। जितना हो सके जितना पॉसिबल हो, उतना न्यायपूर्वक करना। नीति की कक्षा में रहकर जितना पॉसिबल हो सके, उतना करना, जो इमपॉसिबल हो वह मत करना। प्रश्नकर्ता : नीति की कक्षा किसे कहेंगे? दादाश्री : नीति की कक्षा का मतलब आपको समझाऊँ। यहाँ मुंबई के एक व्यापारी थे, जब गेहूँ के बहुत भाव बढ़ जाते थे न, तब वे व्यापारी एक वेगन इंदौरी गेहूँ मँगवाते और एक वेगन रेती मँगवाते थे। दोनों इकट्ठा करके फिर बोरी में फिर से भर देते थे। बोलो, अब वह क्या नीति कहलाएगी? प्रश्नकर्ता : लेकिन नीति-अनीति के भेद तो बहुत सूक्ष्म होते हैं। उनका पता ही नहीं चलता। दादाश्री : बाकी सभी चीज़ों में हमें अनीति देखने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन इंसानों के खाने की जो चीजें होती हैं, इंसानों के शरीर में जानेवाली जो चीजें होती है, भोजन या दवाई, उसके लिए तो नियमों का बहुत ही ध्यान रखना चाहिए। ऐसा है न, कि आप धोखे से चालीस रतल के बदले सैंतीस रतल दोगे, लेकिन शुद्ध दोगे तो आप गुनहगार नहीं हो या फिर कम गुनहगार हो, और यदि कोई चालीस रतल पूरा देता है, लेकिन
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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