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________________ १८० आप्तवाणी-७ वे तरणतारणहार बन चुके हैं, इसलिए वे छुटकारा दिलवा सकते हैं। पाप-पुण्य, क़ीमती या भ्रांति? प्रश्नकर्ता : जो पुण्यशाली हों, उन्हें सभी 'आईए, बैठिए' करेंगे तो, उससे उनका अहम् नहीं बढ़ेगा? दादाश्री : ऐसा है न कि, यह बात जिसे 'ज्ञान' है उसके लिए नहीं है। यह तो संसारी बात है। जिसके पास 'ज्ञान' है, उसके लिए तो पुण्य भी नहीं रहा और पाप भी नहीं रहा! उसके लिए तो दोनों का निकाल ही करना शेष रहा। क्योंकि पुण्य और पाप दोनों भ्रांति हैं। लेकिन जगत् ने इसे बहुत क़ीमती माना है। यानी कि यह तो जगत् की बात कर रहे हैं। लेकिन इस जगत् में लोग बेकार ही हाथ-पैर मारते हैं। एक व्यक्ति तो पचास-बावन वर्ष का हो गया फिर मुझसे कहने लगा, 'अब कुछ मेरे ग्रह बदलेंगे ऐसा लगता है।' अरे, अभी तक तेरा ठिकाना नहीं पड़ा, तो अब लक्ष्मी तेरे पास किस तरह आएगी? बेकार ही शोर मचा रहा है न! किस की आशा रख रहा है? जो है वह समेटकर सो जा न चुपचाप। जो आशा, निराशा में बदल जाए, वह आशा किस काम की? आशा तो कैसी होनी चाहिए? आशा ऐसी होनी चाहिए जो परिपूर्ण हो जाए। पुण्य तो बहुत बड़ी चीज़ है लेकिन इस काल में इतने पुण्य नहीं होते। यह पापानुबंधी पुण्य है! चार-चार गाड़ियाँ होती हैं, लेकिन जब वे सेठ आएँ तो लोग कहेंगे, 'जाने दो न बात।' जहाँ अज्ञानता, वहीं पाप-पुण्य के बंधन फिर भी पूरा जगत् तो ऐसे के ऐसे ही चलता रहेगा! जब तक ऐसी मान्यता हैं कि 'मैं चंदूलाल हूँ,' तब तक कर्म बँधते ही रहेंगे। दो प्रकार के कर्म बंधते हैं। पुण्य करे तो
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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