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________________ आप्तवाणी-७ यह पूरा जगत् तो भयवाला है! साँप का भय, बाघ का भय, अरे इन्कमटैक्सवाले का भी भय लगता है, ऐसा भय लगता है या नहीं लगता? मुझे लगता है कि तू 'भय' को पहचानता ही नहीं है? तुझे क्या ऐसा लगा कि मैं सगे 'भाई' की बात कर रहा हूँ? १०० यह तो भय का संग्रहस्थान है । विचारशील को तो प्रतिक्षण भय दिखता है। जो जागृत नहीं है उसे कैसे भय दिखेगा? किसी को पुलिसवाले के प्रति प्रीति नहीं होती, देखे तभी से 'यह कहाँ से आया?' कहेगा, और भगवा कपड़ा पहनकर बाबा आया तो कहेगा कि, 'आईए महाराज !' लेकिन पुलिसवाले को देखा कि घबराहट हो जाती है। संसार का यह स्वरूप हमें कम उम्र से ही दिखता था, भयंकर विकरालता! प्रतिक्षण भयवाला, प्रतिक्षण दुःखवाला, प्रतिक्षण उपाधिवाला!! अतः फिर किसी जगह पर हमें मूर्छा ही नहीं होती थी और किसी जगह पर टेस्ट ही नहीं आता था न ! अर्थी कब निकल जाए, उसका क्या ठिकाना ? लेकिन यह तो क्या होता है? जो भय भरा हुआ है, वही भय उसे दिखता है। जो भय नहीं भरा, वह नहीं दिखता। पाँच लोग यहाँ से अँधेरे में जंगल में जा रहे हों, तो एक को ऐसा भय हो कि 'अभी शेर दहाड़ेगा, अभी शेर दहाड़ेगा ।' दूसरे को, 'साँप काट खाएगा तो ?' ऐसा भय हो । तीसरे को मन में ऐसा होता है कि, 'लुटेरे मिल जाएँगे और मारेंगे तो?' यानी सभी के भय अलग-अलग होते हैं, जिसने जिस प्रकार का भय भरा होगा, उसे वहीं भय दिखेगा, दूसरे नहीं दिखेंगे। यानी बात में कोई माल नहीं है । कुछ लोगों को तो, पूरे दिन मोटरों में घूमते हैं, लेकिन ऐसा विचार ही नहीं आता कि 'मैं टकरा जाऊँगा,' क्योंकि वह माल ही नहीं भरा है न! और यदि वह माल भरा हुआ होगा
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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