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________________ ७६ आप्तवाणी-७ चाहिए। इंसान संयोगों के अधीन है, लेकिन खुद ऐसा मानता है कि 'मैं कुछ कर रहा हूँ,' लेकिन वह जो कर्ता है वह भी संयोगों के अधीन है। एक भी संयोग कम पड़ा, तो उससे वह कार्य नहीं हो सकेगा। कोई एक व्यक्ति है, वह सामायिक करता है तो दूसरे लोगों से क्या कहता है कि, 'मैं रोज़ चार सामायिक करता हूँ, यह व्यक्ति तो एक ही सामायिक करता है।' उससे पता चल जाता है कि इस व्यक्ति को सामायिक करने का इगोइज़म है, इसलिए दूसरों के दोष निकाल रहा है, 'वह एक ही करता है और मैं चार करता हूँ।' फिर दो-चार दिनों बाद हम वापस उसके पास जाएँ कि, 'भाई, क्यों आज सामायिक नहीं कर रहे हो?' तब कहेगा कि, 'पैर जकड़ गए है।' तब हम पूछे कि, 'भाई, पैर सामायिक कर रहे थे या आप कर रहे थे? पैर यदि सामायिक कर रहे होते तो आपने जो कहा वह गलत कहा था।' यानी यह तो पैर ठिकाने पर होने चाहिए, मन ठिकाने पर होना चाहिए, बुद्धि ठिकाने पर होनी चाहिए, जब सभी संयोग ठीक होंगे तब सामायिक होगी, और अहंकार भी ठिकाने पर रहना चाहिए। अहंकार भी उस घड़ी ठिकाने पर न हो तो कार्य नहीं होगा, यानी जब यह सबकुछ साथ में होगा तब कार्य होगा। चिंता के परिणाम क्या? इस संसार में बाइ प्रोडक्ट का अहंकार होता ही है और वह सहज अहंकार है, जिससे संसार आसानी से चल सकता है, ऐसा है। जबकि वहाँ पर अहंकार का पूरा कारखाना ही लगाया और अहंकार का बहुत विस्तार किया, और उसका इतना विस्तार किया कि उससे चिंताओं का अंत नहीं रहा! अहंकार का ही विस्तार करते रहे। सहज अहंकार से, नॉर्मल अहंकार से संसार चल सकता है, लेकिन वहाँ पर अहंकार का विस्तार करके फिर चाचा इतनी उम्र में भी कहते हैं कि, 'मुझे चिंता हो रही है।' वह जो चिंता
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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