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________________ चिंता से मुक्ति (५) ७३ पत्री कुछ भी नहीं! अतः यह सब परसत्ता है, उसमें हाथ ही मत डालना। इसलिए जो कुछ हो रहा है, वह 'व्यवस्थित' में हो तो भले हो और नहीं हो तब भी भले ही नहीं हो। ___ मनुष्य स्वभाव चिंता मोल लेता है चिंता, वह तो काम को नुकसान पहुँचाती है। 'तेरी जो चिंता' है वह काम को सौ प्रतिशत के बदले सत्तर प्रतिशत कर देती है। चिंता काम को ओब्स्ट्रक्ट करती है। यदि चिंता नहीं होगी तो बहुत सुंदर फल आएगा। चिंता करने जैसा यह जगत् है ही नहीं। इस जगत् में चिंता करना, वह बेस्ट फूलिशनेस है। चिंता करने के लिए यह जगत् है ही नहीं, यह इटसेल्फ क्रियेशन है। भगवान ने यह क्रियेशन नहीं किया है। इसलिए यह क्रियेशन चिंता करने के लिए नहीं है। सिर्फ ये मनुष्य ही चिंता करते हैं, और कोई जीव चिंता नहीं करते। बाकी की चौर्यासी लाख योनियाँ हैं, लेकिन कोई चिंतावरीज़ नहीं करता। ये मनुष्य नाम के जीव बहुत अक्लमंद है, वे ही पूरे दिन चिंता में पकते रहते हैं! भगवान ने क्या कहा है कि, “प्राप्त को भोगो, अप्राप्त की चिंता मत करो।' यानी क्या कि जो प्राप्त है उसे भोगो न! अब किसी के तीन रूमवाले मकान को, कुछ भी करके सरकार तीनों ही रूम ले ले, तो फिर वह क्या कहेगा, 'साहब, एक रूम दे दो तो भी बहुत हो गया।' अरे, तू कहता था न, कि 'मुझे तो चार रूम चाहिए?' अब ऐसा क्यों कह रहा है कि एक रूम से 'चलेगा?' लेकिन ऐसा ही है, मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। पच्चीस साल की उम्र से ही मैंने खोजबीन की थी कि मनुष्यों का स्वभाव ऐसा ही है। इसलिए सभी लोग जिस रास्ते इस तरह जा रहे हैं न, उस रास्ते पर मैं नहीं जाता था। मैं शोर्टकट पहचान लेता था। ये लोग तो आगे चार भेड़ें चलीं तो उनके
SR No.030018
Book TitleAptavani Shreni 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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