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________________ आप्तवाणी-६ हममें बुद्धि नहीं है, इसलिए हमें कोई असर नहीं होता। हमारे भीतर भी तरह-तरह के ‘चालबाज़' हैं, वे तरह - तरह का कह जाते हैं, परंतु यदि बीच में स्वीकार करनेवाली बुद्धि होगी तो गड़बड़ होगी न ! बुद्धि स्वीकार करती है, फिर मन पकड़ लेता है और मन धमाचौकड़ी मचा देता है! ५८ प्रश्नकर्ता : बुद्धि ने स्वीकार किया, फिर जुगाली करने की क्रिया कौन करता है? दादाश्री : बुद्धि स्वीकार करती है और फिर मन को पहुँचता है। अब मन ही उछलकूद करता है, जुगाली करने का काम भी मन ही करता है। मन विरोधाभासी है । वह घड़ीभर में ऐसे ले जाता है और घड़ीभर में दूसरे कौने पर ले जाता है, हिला-हिलाकर तूफ़ान मचा देता है ! बुद्धि और प्रज्ञा का डिमार्केशन प्रश्नकर्ता : यह काम प्रज्ञा ने किया या बुद्धि ने किया, वह किस तरह पता चलेगा? बुद्धि और प्रज्ञा की परिभाषा क्या है? कुछ बात हो जाए तो कहते हैं बुद्धि दौड़ाई, बुद्धि खड़ी हुई, तो बुद्धि क्या है? दादाश्री : अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) करे, वह बुद्धि है। प्रज्ञा में अजंपा नहीं होता । आपको थोड़ा भी अजंपा हो तो समझना कि बुद्धि का चलन है। आपको बुद्धि का उपयोग नहीं करना हो, फिर भी उपयोग हो ही जाता है । वही आपको चैन से बैठने नहीं देती । वह आपको इमोशनल करवाती है। उस बुद्धि को हमें कहना है कि 'हे बुद्धिबहन ! आप अपने पीहर जाओ। हमें अब आपके साथ कोई लेना-देना नहीं है।' सूर्य का उजाला हो जाए, फिर मोमबत्ती की ज़रूरत रहेगी क्या? अर्थात् आत्मा का प्रकाश होने के बाद बुद्धि के प्रकाश की ज़रूरत नहीं रहती। मुझमें बुद्धि नहीं है। मैं अबुध हूँ । प्रश्नकर्ता : तो फिर मौन रहना, उसे बुद्धि दौड़ाई नहीं कहा जाएगा? दादाश्री : मौन रखने से रहेगा नहीं ।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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