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________________ आप्तवाणी-६ I सामनेवाले का दोष किसी जगह पर है ही नहीं, सामनेवाले का क्या दोष? वे तो ऐसा ही मानकर बैठे हैं कि यह संसार ही सुख है और यही सच्ची बात है । उन्हें हम ऐसे मनवाने जाएँ कि तुम्हारी मान्यता गलत है, तो वह अपनी ही भूल है ! अपनी ही ऐसी कोई कमी रह जाती है। मैंने मेरे अनुभव से देखा है। जब तक मुझे वैसा परिणाम रहता था, तब तक वैसे सभी इफेक्ट्स रहते थे, लेकिन जब मेरे मन में से वह चला गया, शंका गई, तो सबकुछ चला गया ! इन सीढ़ियों को देखकर, अनुभव करके मैं चढ़ा हूँ । आप जो कहते हो, वे सभी सीढ़ियाँ (पायदान) मैंने देखी हैं । और उनमें से अनुभव लेकर 'मैं' ऊपर चढ़ा हूँ। मैं देख चुका हूँ, इसलिए मैं आपको मार्ग बता सकता हूँ। इन सब लोगों को मैं जो ज्ञान देता हूँ, तब उन्हें मेरी देखी हुई सीढ़ियों पर ही लाता हूँ। जो-जो मैंने अनुभव किया है, वही रास्ता आपको बताता हूँ। दूसरा रास्ता है ही नहीं न! I ३३ यदि पहले तो कोई दुःख का विचार आता था, तब हम कितना ही जोखिम उठाकर भी उसमें दूसरा सुख का आइडिया सेट कर देते थे। चिंता हो तो सिनेमा देखने चले जाते थे या कुछ और करते थे। दूसरों की क़ीमत पर भी उस घड़ी तो दुःख को खत्म कर देते थे और स्वरूप का ज्ञान होने के बाद वह दूसरों की क़ीमत पर दुःख को उड़ा नहीं देता है । इसलिए उसे दुःख बहुत सहन करना पड़ता है, ऐसा मेरे अनुभव में आया है। मैंने खुद भी यह अनुभव किया हुआ है, क्योंकि दूसरों के दुःख से मैं, सुखी होने के लिए उस घड़ी मेरे मन को दूसरे पर्याय नहीं दिखाता हूँ। और जगत् क्या कर रहा है कि खुद का दुःख निकालने के लिए दूसरे विषयों में पड़ता है, यानी कि उस दुःख को यहाँ से वहाँ धकेलता है, जगत् वही कर रहा है न? ज़रा सा दुःख पड़े कि पूँजी भुनाता रहता है न? भीतर कितना सामान भरा हुआ है? हम तो इसे ( फाइल नं -१ से) कहते हैं कि इसे भुगतो ही । पूँजी को भुनाकर खा मत जाना! पूँजी ऐसी की ऐसी अनामत रखनी है । ये दुःख आ पड़ें, उस पर लोग दवाई चुपड़ते हैं । अरे, उल्टा जोखिम
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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