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________________ आप्तवाणी-६ । दादाश्री : तप करना नहीं पड़ता। तप तो स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है। प्रश्नकर्ता : जब तक तप होता है, तब तक अपूर्णता कहलाती है न? दादाश्री : अपूर्णता तो, ठेठ 'केवलज्ञान' होने तक अपूर्ण ही कहलाता है। मेरा भी अपूर्ण कहलाता है और आपका भी अपूर्ण कहलाता है। तप करने से खुद की ज्ञानदशा की डिग्रियाँ बढ़ती हैं। तप अंतिम शुद्धता लाता है। पूर्ण शुद्ध सोना तो मैं भी नहीं कहलाऊँगा और आप भी नहीं कहलाएँगे। और ज्ञानी को भी देह के तप होते हैं। प्रतिक्रमण : क्रमिक के - अक्रम के प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि 'अक्रम मार्ग' में पक्षपात नहीं होता, तो खंडन के बिना मंडन किस तरह हो सकता है? दादाश्री : यह मंडन करने का मार्ग ही नहीं है और खंडन करने का भी मार्ग नहीं है। यह तो जिसे मोक्ष में जाना है, उसके लिए ही यह मार्ग है। और जिसे मोक्ष में नहीं जाना है, उसके लिए दूसरा रास्ता है। दूसरा धर्म चाहिए तो हम वह भी देते हैं। क्रमिक मार्ग द्वारा आगे जाना बहुत कठोर उपाय है, फिर भी वह हमेशा का मार्ग है। जब तक मन में अलग है, वाणी में अलग और वर्तन में अलग है तब तक कोई धर्म नहीं चलेगा। अभी सब जगह ऐसा ही हो गया है न? इसलिए हम, यदि इस काल के मनुष्यों को धर्म जानना हो तो उन्हें क्या सिखलाते हैं? तुझसे झूठ बोला गया, उसमें हर्ज नहीं है। मन में तू झूठ बोला उसमें हर्ज नहीं है, परंतु अब तू उसका 'इस' तरह प्रतिक्रमण कर और निश्चित कर कि फिर से ऐसा नहीं बोलूँगा। हम प्रतिक्रमण करना सिखाते हैं।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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