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________________ [३] आमंत्रित कर्मबंधी हमारा कर्म हमारी मर्जी के अनुसार होता है और आपको कर्म नचाते हैं। हमें स्वतंत्रता होती है, इसलिए हम चैन से बैठते हैं। आपके कर्म भी धीरे-धीरे खत्म हो जाएँगे, बाद में आप बुलाओगे फिर भी नहीं आएँगे। वे फालतू नहीं हैं। हमने हस्ताक्षर किए थे इसलिए आए हैं, नहीं तो वे आते ही नहीं न? करार पर जैसे हस्ताक्षर किए हैं, उलझनवाले हैं तो वैसा आता है और साफ-सुथरे हों तो साफ-सुथरा आता है। अरे, सत्संग में से उठाकर ले जाता है। चारा ही नहीं न? प्रश्नकर्ता : संबंध रखा वह राग हुआ, क्या इसलिए बुलाते हैं? दादाश्री : वह सब राग और द्वेष ही है। लेकिन पहले हमने हस्ताक्षर कर दिए हैं, तभी उसे राग उत्पन्न होता है, नहीं तो कोई नाम देनेवाला नहीं है। इस भव में कुछ ही हस्ताक्षर मान्य होते हैं। आप जितना मानते हो उतने हस्ताक्षर नहीं होते। हस्ताक्षर तो टाइप होने के बाद फिर से टाइप होता है, तब हस्ताक्षर माने जाते हैं। इसलिए उतने सारे नहीं होते। तप के ताप से उभर आई शुद्धता व्यवहारचारित्र से लेकर ठेठ आत्मचारित्र तक के चारित्र हैं। ज्ञानदर्शन-चारित्र और तप। उनमें से जो आत्मचारित्र है, वह अंतिम प्रकार का चारित्र है। व्यवहार चारित्र का फोटो खिंच सकता है और इस आत्मचारित्र का फोटो नहीं खिंचता। जो अंतिम प्रकार के ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप हैं उन चारों के ही फोटो नहीं खिंच सकते। प्रश्नकर्ता : अंतिम तप कौन सा?
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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