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________________ आप्तवाणी-६ मिला तब से आपको शुद्धात्मा की चिंतना होती रहेगी । फिर भी यह जो लगता है कि, ‘मैं ऐसा हूँ', 'मुझे ऐसा हुआ', यह सब मोह है। यह सत्संग करते हैं, वह भी सारा मोह ही है। परंतु यह चारित्रमोह है। चारित्रमोह किसे कहते हैं? कि समभाव से निकाल कर दिया, तो वह खत्म ही हो गया । वह वापस हमें स्पर्श नहीं करेगा और वह सचमुच का मोह तो खुद को चिपके बगैर रहेगा ही नहीं । यह दर्शनमोह चला गया है इसलिए सिर्फ चारित्रमोह ही बाकी रहा । उसे डिस्चार्ज मोह कहा जाता है । १६ ज्ञान नहीं हो उसे तो अब 'डिस्चार्ज मोह' में तो 'मैं ऐसा हूँ और वैसा हूँ' ऐसी सारी कल्पनाएँ रहा करती हैं । इसलिए वैसा हो जाता है वापस। और स्वरूपज्ञान के बाद 'मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा रहा करता है, इसलिए शुद्ध होता जाता है और 'चंदूभाई' को तो जो होना हो वह होगा, जो उसका प्रकृति स्वभाव है वह तो निकलेगा ही । 'उसका' और 'आपका' लेना-देना नहीं है । सिर्फ उसका निकाल कर देना है ।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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