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________________ आप्तवाणी-६ २१५ प्रश्नकर्ता : यह अटकण जब आती है, तब 'दादा' भी हाज़िर होते हैं? हम कहें कि दादा, देखिए यह सब आ रहा है, तो? दादाश्री : अटकण तो मूर्छित कर देती है। उस समय 'दादा' लक्ष्य में नहीं रहते, अटकण तो दादा भी भुलवा देती है। आत्मा भुला देती है और मूर्छित कर देती है हमें! जागृति ही नहीं रहती। 'दादा' हाज़िर रहें तो उसे अटकण नहीं कहते, परंतु निकाचित कहते हैं। प्रश्नकर्ता : अटकण का बाद में पता चले, तो उसका क्या उपाय करना चाहिए? दादाश्री : वह मूर्छा है, वैसा हमें देख लेना चाहिए। उसकी सामायिक करनी पड़ेगी। यहाँ पर ये सब करते हैं न, उस तरह सामायिक में स्टेज पर रखना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : छोटे बच्चे को बेट-बॉल नहीं मिले तब तक मन में वही रहता है, हंगामा मचाए तो वह उसकी अटकण कहलाएगी? दादाश्री : नहीं, वह उसकी अटकण नहीं कहलाएगी। अटकण तो अनादि से जिससे भटका है, वह है! ये बेट-बॉल तो उतने समय के लिए ही हैं, वह तो पाँच-सात साल की उम्र है, तभी तक वह रहेगा! वह बाल अवस्था है, तभी तक उसे वह रहेगा। और फिर व्यापार में लग जाए तो उसे फिर इसके लिए कुछ भी नहीं रहेगा। और अटकण तो निरंतर रहती है, वह पंद्रह वर्ष से लेकर बूढ़ा हो जाए तब तक अटकण रहती है! प्रश्नकर्ता : पुरुषार्थ से, पराक्रम से अटकण का निकाल हो सकता है न? दादाश्री : हाँ, सबकुछ हो सकता है। इसीलिए तो हम चेतावनी देते हैं कि जहाँ पर आत्मा प्राप्त हुआ, जहाँ पर पुरुष बने हो, पुरुषार्थ है, पराक्रम किया जा सके वैसा है, तो अब काम निकाल लो। फिर से अटकना जोखिमवाला है, वहाँ पर हल निकाल लो! खुद का किसी प्रकार का सुख नहीं हो तब कैसी भी अटकण पड़
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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