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________________ १७८ आप्तवाणी-६ कषायों से कर्म बंधन प्रश्नकर्ता : नाम के प्रति मोह किस लिए है? दादाश्री : कीर्ति के लिए! उसी की तो सारी मार खाई है अब तक! नाम का मोह, वह कीर्ति कहलाता है। कीर्ति के लिए मार खाई। अब, जब कीर्ति के बाद अपकीर्ति आए, तब भयंकर दु:ख होता है। इसलिए कीर्ति-अपकीर्ति से हमें परे होना है। नाम का भी मोह नहीं चाहिए। खुद अपने आप में ही अपार सुख है! मान और क्रोध, वे दोनों द्वेष हैं और लोभ व माया, वे राग हैं। कपट, राग में जाता है। प्रश्नकर्ता : किसी के भय की वजह से कपट करना पड़े तो? दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं है। वह दूसरे को बहुत नुकसान करनेवाला नहीं है न? कपट, 'सामनेवाले को कितना नुकसान करता है', उस पर आधार रखता है। अभी आप सत्संग में जाने के लिए कपट करो तो वह कपट नहीं माना जाएगा, क्योंकि कुसंग तो भरपूर पड़ा हुआ है ही। प्रश्नकर्ता : यह कपट का निमित्त आया, तभी कपट का भाव हुआ न? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : क्या भावकर्म बँधवाने के लिए कपट का निमित्त आता है? दादाश्री : सिर्फ कपट ही नहीं, उसमें क्रोध-मान-माया-लोभ. चारों ही आ जाते हैं। उससे उसका अंधा दर्शन खड़ा हो जाता है। इसलिए ऐसे दर्शन के आधार पर ही वह सारे काम करता है। यह जब हम ज्ञान देते हैं, तब उस दर्शन को तोड़ते हैं। कितने ही पाप भस्मीभूत होने पर वह दर्शन टूटता है, और वह दर्शन टूटा कि काम हो गया! इन क्रोध-मान-माया-लोभ के कारण संसार खड़ा रहा है, विषयों
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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