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________________ १४६ आप्तवाणी-६ गलन (डिस्चार्ज होना, खाली होना) हो रहा है, उसका समभाव से निकाल करो। इसलिए आप अमुक अपेक्षा से चंदूभाई हो और अमुक अपेक्षा से सेठ भी हो। अमुक अपेक्षा से इनके ससुर भी हो। परंतु आप अपनी ‘लिमिट' जानते हो या नहीं जानते कि 'किन-किन अपेक्षाओं से मैं ससुर हूँ?' वह पीछे पड़ जाए कि 'आप हमेशा के लिए इनके ससुर हो', तब आप कहेंगे, ‘नहीं भई, हमेशा के लिए कोई ससुर होता होगा ? " आप तो ‘शुद्धात्मा' हो और 'चंदूभाई' तो वळगण (बला, पाश, बंधन) है। परंतु अनादिकाल का यह अध्यास है, इसलिए हर बार उसी ओर खींच ले जाता है । डॉक्टर ने कहा हो कि दाएँ हाथ का उपयोग मत करना, फिर भी दायाँ हाथ थाली में डाल देता है । लेकिन 'यह' जागृति ऐसी है कि तुरंत ही पता चल जाता है कि यह भूल हुई। आत्मा ही जागृति है। आत्मा ही ज्ञान है। परंतु पहले की अजागृति आती है, इसलिए कुछ समय तक अजागृति की मार खाता है। प्रश्नकर्ता : यह बेटा मेरा है, यह बेटी मेरी है, ऐसा होता है, उसे फिर ऐसा भी होता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और 'यह तो मेरा नहीं है, मेरा नहीं है।' दादाश्री : भीतर गुणन होता है, उसमें फिर भाग लगा देते हैं। भीतर सब तरह-तरह के कारक हैं। एक-दो ही नहीं । यह तो सारी माया है । इसलिए यह तो हमें तरह- तरह का दिखाएगी। इन सभी को हमें पहचानना पड़ेगा। यह अपना हितेच्छु है, यह अपना दुश्मन है, इस तरह सभी को पहचानना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : हमारे भीतर तो उल्टी-सीधी सभी तरह की टोलियाँ इकट्ठी हैं, वह तो रोज़ का ही है । दादाश्री : कोई भी भाव हमारे भीतर उत्पन्न हो और उसका बवंडर उठे तो वहीं से छोड़ देना सबकुछ | बवंडर उठा कि तुरंत ही ऐसा पता चल जाता है कि सबकुछ उल्टे रास्ते पर है। जहाँ थे वहाँ से ‘मैं शुद्धात्मा
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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