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________________ १२० आप्तवाणी-६ दादाश्री : दृष्टिमोह जाना चाहिए, तभी जो बाकी बचा, वह चारित्रमोह माना जाएगा। अर्थात् चारित्रमोह कब कहलाएगा? दर्शनमोह टूटने पर मोह का विभाजन हो जाता है। उसमें से एक भाग खत्म हो गया और जो दूसरा भाग बचा, वह चारित्रमोह, 'डिस्चार्ज' मोह है। यदि स्वरूप का भान हो जाए तो 'चार्ज' मोह खत्म हो जाता है। यह 'चार्ज' मोह ही हानिकारक है। 'चार्ज' मोह का अर्थ ही दर्शनमोह। प्रश्नकर्ता : परंतु लोग तो डिस्चार्ज मोह को निकालने के लिए माथापच्ची करते हैं न? दादाश्री : नहीं। डिस्चार्ज मोह को तो वे लोग समझते ही नहीं। जगत् तो उसे ही 'मोह' कहता है। 'डिस्चार्ज' मोह को निकालने के लिए दूसरा मोह खड़ा किया है, उसी का नाम 'क्रमिक मार्ग।' यानी हम कुछ अलग कहना चाहते है कि इस पीड़ा में किस लिए उतरते हो? सीधी बात समझ जाओ न? यदि सीधा समझोगे तो हल आएगा। तब वे कहते हैं कि सीधा समझानेवाले कोई हों, तब सीधा समझेंगे न? जहाँ सीधा समझानेवाले हैं ही नहीं, वहाँ क्या होगा? वर्ना ज्ञान तो था ही न, लेकिन जहाँ ज्ञानी नहीं होते, वहाँ क्या हो सकता है? आप सब ये लड्डू-पूड़ी खाते हो, तो मैं किसी को डाँटने आता हूँ? मैं जानता हूँ कि यह अपने मोह का निकाल कर रहा है। प्रश्नकर्ता : ऐसे भी आप कहाँ किसी को डाँटते हैं? दादाश्री : यह डाँटने जैसा है ही नहीं। सभी निकाल कर रहे हैं, वहाँ क्या डाँटना? दर्शनमोह हो और वह उल्टा चल रहा हो, तब तो डाँटना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : किसी का डिस्चार्ज मोह देखकर ऐसी प्रेरणा ली कि 'मैं इससे भी अधिक अच्छा करूँ', ऐसे मोह में उतर पड़े, तो वह कौन सा मोह है? दादाश्री : वह भी सारा डिस्चार्ज मोह ही कहलाता है। हमें ऐसा
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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