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________________ आप्तवाणी-६ १०५ उसे भी हमें जानना है कि 'ओहोहो! यह प्रतिष्ठित आत्मा जलेबी में तन्मयाकार हो गया है।' ___ महावीर भगवान ने उनके शिष्यों को सिखाया था कि आप बाहर जाते हो और लोग एकाध लकड़ी मारें तो आपको ऐसा समझना है कि सिर्फ लकडी ही मारी है न? हाथ तो नहीं तोड़ा न? इतनी तो बचत हुई! अर्थात् इसे ही लाभ मानना। कोई एक हाथ तोड़े तो, दूसरा तो नहीं तोड़ा न? दो हाथ काट दिए, तब कहो पैर तो हैं न? दो हाथ और दो पैर काट डाले तो कहना कि मैं जीवित तो हूँ न? आँखों से तो दिख रहा है न? लाभ-अलाभ भगवान ने दिखाया। तू रोना मत, हँस, आनंद कर। बात गलत नहीं है न? भगवान ने सम्यक् दृष्टि से देखा था, उससे नुकसान में भी फ़ायदा दिखता है। छुटकारे की चाबी कौन सी? इस जगत् का नियम क्या है? कि शक्तिशाली अशक्त को मारता है। कुदरत तो किसे शक्तिशाली बनाती है कि पाप कम किए हों, उसे शक्तिशाली बनाती है और पाप अधिक किए हों, उसे अशक्त बनाती है। यदि आपको छुटकारा पाना हो तो एक बार मार खा लो। मैंने जिंदगीभर ऐसा ही किया है। उसके बाद फिर मैंने सार निकाल लिया कि मेरे लिए किसी भी प्रकार की मार नहीं रही, भय भी नहीं रहा। पूरा 'वर्ल्ड' क्या है, मैंने उसका सार निकाल लिया है। मुझे खुद को तो सार मिल गया है, परंतु अब लोगों को भी सार निकालकर देता हूँ। यानी कभी न कभी तो इस लाइन पर आना ही पड़ेगा न? नियम किसी को नहीं छोड़ता है। ज़रा सा गुनाह किया कि चार पैरोंवाले बनकर भोगना पड़ेगा। चार पैरों में फिर सुख लगेगा क्या? गुनाह मात्र बंद कर दो। अहिंसा से आपको किसी भी प्रकार की मार पड़ने का भय नहीं रहेगा। कोई मारेगा, कोई काट लेगा, उतना भी
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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