SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१४] प्रतिकूलता की प्रीति प्रश्नकर्ता : हर किसी को अनुकूल संयोग ही चाहिए, ऐसा क्यों? दादाश्री : अनुकूल अर्थात् सुख, जिसमें शाता (सुख-परिणाम) लगे वह अनुकूल, अशाता (दुःख-परिणाम) लगे वह प्रतिकूल। आत्मा का स्वभाव आनंदवाला है, इसलिए उसे प्रतिकूलता चाहिए ही नहीं न ! इसलिए छोटे से छोटा जीव हो, उसे भी यदि अनुकूल नहीं आए तो खिसक जाता है! इसलिए अंतिम बात यह समझ लेनी है कि प्रतिकूल और अनुकूल को एक कर डालो। इस चीज़ में कुछ तथ्य नहीं है। इस रुपये के सिक्के में आगे रानी होती है और पीछे लिखा हुआ होता है, उसके जैसा है। उसी तरह इसमें कुछ है ही नहीं । अनुकूल और प्रतिकूल सब कल्पनाएँ ही हैं। आप शुद्धात्मा बन गए, इसलिए फिर अनुकूल भी नहीं है और प्रतिकूल भी नहीं है। यह तो जब तक आरोपित भाव है, तभी तक संसार है और तभी तक अनुकूल और प्रतिकूल का झंझट है। अब तो जगत् को जो प्रतिकूल लगता है, वह हमें अनुकूल लगता है । प्रतिकूलता आए तभी हमें पता चलता है कि पारा चढ़ा है या उतरा है । I हम घर पर आएँ और आते ही कुछ उपाधि खड़ी हो गई तो हम जान जाते हैं कि हमें अभी तक ऊँचे-नीचे परिणाम बरत रहे हैं । वर्ना भीतर ठंडक हो गई है, ऐसा भी पता चलता है। उसके लिए थर्मामीटर चाहिए न? उसका थर्मामीटर बाज़ार में नहीं मिलता है, अपने घर पर एकाध हो
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy