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________________ आप्तवाणी-६ ८३ दादाश्री : पूरा जगत् ऐसे का ऐसा ही रहनेवाला है। यह जगत् कभी भी ज्ञेय रहित होगा ही नहीं! ज्ञाता भी रहेंगे और ज्ञेय भी रहेंगे। प्रश्नकर्ता : सिद्धक्षेत्र में जाए, तो वहाँ संयोग नहीं हैं न? दादाश्री : नहीं, लेकिन वहाँ पर रहकर यहाँ के सभी संयोग उन्हें दिखते हैं। उन्हें देखना क्या है? यही देखना है। यह मैंने हाथ ऊँचा किया, तो वहाँ पर उन्हें ऊँचा किया हुआ हाथ दिख जाता है। प्रश्नकर्ता : उनका ज्ञाता-दृष्टा गुण तो हमेशा ही रहता है न? दादाश्री : हाँ, वही हमेशा रहता है, आत्मा का स्वरूप है। और ज्ञाता-दृष्टा रहे, वहीं पर आनंद रहता है, नहीं तो आनंद नहीं रहता। प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा नहीं रहे तो क्या आनंद नहीं रहता? दादाश्री : नहीं रहता। ज्ञाता-दृष्टा का फल आनंद है। एक ओर ज्ञाता-दृष्टा रहना और दूसरी ओर आनंद उत्पन्न होना, ऐसा है। जैसे सिनेमा में गया हुआ व्यक्ति सिनेमा का परदा नहीं उठे, तब तक बेचैन रहता है, सीटियाँ बजाता है, ऐसा वह किसलिए करता है? क्योंकि उसे द:ख होता है कि जो देखने आया है, वह उसे देखने को नहीं मिल रहा है। ज्ञेय को नहीं देखे, तब तक उसे सुख उत्पन्न नहीं होता। उसी प्रकार आत्मा ज्ञेय को देखे और जाने तब भीतर परमानंद उत्पन्न होता है। अब रात को अकेला कमरे में सो गया हो तो वहाँ क्या देखेगा? वहाँ कौन-से फोटो देखने हैं? तो वहाँ तो अंदर का सबकुछ दिखता है। अंत में नींद भी दिखती है, स्वप्न भी दिखता है। प्रश्नकर्ता : परंतु सिद्धक्षेत्र में स्वप्न नहीं दिखता न? दादाश्री : नहीं, वहाँ स्वप्न नहीं होता। स्वप्न तो यह देह है, इसलिए है। और अभी यह जो है, वह भी खुली आँखों का स्वप्न है। ज्ञानियों को नींद नहीं होती। उनका तो देखना चलता ही रहता है। उन्हें दूसरे प्रदेशों में देखने को मिलता है, बाकी सिद्धक्षेत्र में तो देह ही नहीं होती। इस देह का भी भार है, उससे दुःख है। ज्ञानियों को देह का बहुत वजन महसूस होता है।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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