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________________ ७६ आप्तवाणी-६ समझते हैं कि आत्मा के चलाए बिना चलेगा ही नहीं। जब कि हमने आपको 'विज्ञान' दिया है कि 'व्यवस्थित' सब चला लेगा। प्रश्नकर्ता : मुझे द्वेष हुआ, तो उसमें आत्मा तन्मयाकार हुआ या नहीं? वह द्वेष किसने किया? मैंने किया? दादाश्री : आत्मा तन्मयाकार हो जाए तब क्या होता है? राग और द्वेष दोनों होते हैं। अब राग-द्वेष हुए हैं, वह पता कैसे चलेगा? कहते हैं कि द्वेष हो तब भीतर चिंता होती है, जी जलता है। इस ज्ञान के बाद आत्मा तन्मयाकार नहीं होता है, इसलिए चैन की स्थिति रहती है, निराकुलता रहती है। निराकुलता अर्थात् सिद्ध भगवान का १/८ गुण उत्पन्न हुआ कहलाता है। जगत् तो आकुलता और व्याकुलता में ही रहता है, छटपटाहट तो रहती ही है, इसलिए ही तो ज्ञानी को ढूँढ़ते हैं। __ लोग क्या समझते हैं कि, आत्मा भाव करता है। वास्तव में तो आत्मा भाव नहीं करता। भावक भाव करते हैं। उन्हें यदि सच्चा मान लिया तो तन्मयाकार हो गया। भाव हुआ उसे सच्चा मानना, वही तन्मयाकार होना कहलाता है। उससे बीज डलते हैं। प्रश्नकर्ता : भावक अर्थात् पुराने कर्म? दादाश्री : भावक यानी मन की गाँठें। किसी को मान की गाँठ, किसी को लोभ की गाँठ, तो किसी को क्रोध की गाँठ, तो किसी को विषय की गाँठ। ये गाँठे ही परेशान करती हैं। आत्मा प्राप्त होने के बाद फिर भाव में भाव्य तन्मयाकार नहीं होते हैं, इसलिए निराकुलता रहती है। निराकुल आनंद पूरे जगत् में जो आनंद है, वह आकुलता-व्याकुलतावाला आनंद है, और 'ज्ञानी' हो जाने के बाद निराकुल आनंद उत्पन्न होता है। 'ज्ञानीपुरुष' के पास निराकुल आनंद उत्पन्न होता है। पुद्गल का कुछ लेना-देना नहीं है, तो फिर यह सुख उत्पन्न कहाँ से हुआ? तब कहते हैं कि वह स्वाभाविक सुख, सहज सुख उत्पन्न हुआ, वही आत्मा का सुख
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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