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आप्तवाणी-३
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ज्ञानीपुरुष ज्ञान देते हैं, तब कषाय चले जाते हैं और फिर स्वपरिणाम और परपरिणाम को स्पष्ट समझा देते हैं। बाकी सिखाते रहने से कुछ भी नहीं होता। तुरन्त भूल जाते हैं। एक बड़ा तालाब हो और उसमें बहुत काई जमी हुई हो, उसमें बड़ा पत्थर डालो, २० - २५ फुट का घेरा बन जाता है। लेकिन फिर थोड़ी देर में जैसा था, वैसे का वैसा ही हो जाता है । अतः कुछ हो नहीं पाता। यह तो ऐसा है कि सारी काई को एक बार में ही हटा दे, तभी क़ाबू में आता है । फिर उसका बहुत ज़ोर नहीं चलता ।
प्रश्नकर्ता : वह तो मुश्किल है ।
दादाश्री : नहीं, ज्ञानीपुरुष यह सब कर देते हैं, लेकिन आपको यहाँ पर हमारे पास बैठकर बात को समझ लेना है, स्वपरिणति और परपरिणति कौन-कौन-सी है, उसे समझ लेना है
जब तक अज्ञान, तब तक परपरिणति
कुछ लोग कहते हैं कि इस व्यक्ति की परिणति ठीक नहीं है। लेकिन परपरिणति चीज़ ही अलग है, इस शब्द का लोग हर कहीं उपयोग कर लेते हैं। धर्म अथवा अन्य कहीं परपरिणति शब्द का उपयोग नहीं कर सकते। (सत्संग) व्याख्यान में जाकर वहाँ संसार के विचार आएँ तो उसे परपरिणति मानते हैं और धर्म के कार्य को स्वपरिणति मानते हैं । लेकिन मूलतः वे खुद ही परपरिणति में हैं । जब तक आत्मपरिणति उत्पन्न नहीं हुई, तब तक निरंतर पुद्गल परिणति ही रहती है, और तब तक उसे पुद्गल परिणति की भिन्नता किस तरह समझ में आएगी? ‘मैं हूँ’, ‘मेरा है', कहते ही दोनों धाराएँ एक हो जाती हैं I
ज्ञानी को, निरंतर स्वपरिणति बर्ते
अच्छे
प्रश्नकर्ता : दादा, आपको जब भी देखे तब आप ऐसे ही मुक्त, मूड में ही दिखते हैं। इसका क्या कारण है?
दादाश्री : हम एक क्षण के लिए भी परपरिणति में नहीं रहते । स्वपरिणति में ही होते हैं । यदि सिर्फ एक घंटे के लिए भी मुझे परपरिणति उत्पन्न हो जाए तो मेरे मुँह पर आपको बदलाव दिखेगा, 'ज्ञानी' को
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