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________________ आप्तवाणी-३ अलग-अलग हिसाब बँधते रहते हैं। इसमें आत्मा जुदा ही है, मात्र भ्रांति उत्पन्न हुई है, उसी कारण से विभाविक दशा में एकता लगती है। 'प्रयोगी' अलग! प्रयोग अलग! प्रयोग और प्रयोगी दोनों अलग होते हैं या एक होते हैं? 'चंदूलाल', वह प्रयोग है और 'खुद' शुद्धात्मा है, वह प्रयोगी है। अब प्रयोग को ही प्रयोगी मान बैठे हैं। प्रयोग में वस्तुएँ निकालनी पड़ती है, डालनी पड़ती है, जब कि प्रयोगी में पूरण-गलन (चार्ज होना-डिस्चार्ज होना) नहीं होता। इस 'प्रयोग' में खाने-पीने का डालना पड़ता है और संडास-बाथरूम में गलन करना पड़ता है। "पोते ज प्रयोगी छे, प्रोयगी नी मूर्छनामां" - नवनीत। प्रयोगी खुद ही प्रयोगों की मूर्छना में पड़ा हुआ है, इसलिए खुद के स्वरूप का भान भूल गया। अभी अगर कोई प्रयोग चल रहा हो, उबलता हुआ पानी हो, उसमें हाथ डालने जाए तो क्या होगा? इसमें पता चल जाता है और आत्मा के संदर्भ में पता ही नहीं चलता इसलिए हाथ डालता ही रहता है। फिर भिन्नता नहीं रह पाती। 'मैं जुदा हूँ', इस प्रकार से बरतता ही नहीं है न फिर?! प्रश्नकर्ता : इसमें मूल प्रयोगी कौन है? दादाश्री : आत्मा ही प्रयोगी है। यह तो आपको समझाने के लिए शब्द रखा है। यह देह प्रयोग है और जो उससे अलग है, वह आत्मा है, इसलिए प्रयोग में दख़लंदाज़ी मत करना। प्रश
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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