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________________ आप्तवाणी-३ . . . और आत्मव्यवहार कैसा! प्रश्नकर्ता : संसारव्यवहार में और आत्मव्यवहार में फर्क क्या है? दादाश्री : संसारव्यवहार क्रियात्मक है और आत्मव्यवहार ज्ञानात्मक है। एक क्रिया करता है और दूसरा 'देखता' रहता है। जो करता है, वह जानता नहीं है और जो जानता है, वह करता नहीं है। करनेवाला और जाननेवाला कभी भी एक नहीं होता, अलग ही होते हैं। अलग थे, अलग हैं और अलग रहेंगे। छह महीने तक लगातार यदि अंदरवाले भगवान को संबोधित करके कहे कि 'हे भगवान! ज्ञान आपका और क्रिया मेरी', तब भी वे भगवान मिल जाएँ, ऐसे हैं। इन्द्रिय ज्ञान के अधीन देखना-जानना, वह राग-द्वेषवाला है। अतिन्द्रिय ज्ञान के अधीन जानने-देखने का अधिकार है, उसके बिना जानने-देखने का अधिकार नहीं है। कई लोग कहते हैं न कि, 'हम ज्ञातादृष्टा रहते हैं।' लेकिन किसका ज्ञाता-दृष्टा? तू अभी तक चंदूलाल है न? आत्मा हो जाने के बाद, आत्मा का लक्ष्य बैठने के बाद ज्ञाता-दृष्टापद शुरू होता है। मुक्ति, मुक्ति का ज्ञान होने के बाद प्रश्नकर्ता : मुक्ति किसे कहते हैं? दादाश्री : अभी आपको कुछ ऐसा नहीं लगता कि आप बँधे हुए हो? प्रश्नकर्ता : लगता है। दादाश्री : सबसे पहले 'बंधन में हूँ', ऐसा ज्ञान होना चाहिए। बंधन है इसलिए मुक्ति का ज्ञान होना चाहिए। 'मैं मुक्त हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाए तब मुक्ति होगी! आत्मा का स्वरूप, 'ज्ञान' ही प्रश्नकर्ता : ज्ञान का स्वरूप क्या है?
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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