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________________ १२६ आप्तवाणी-३ प्रतिष्ठित आत्मा में क्रोध-मान-माया-लोभ की प्रतिष्ठा हो चुकी है, वह अभी फल दे रही है। स्वरूप का ज्ञान हो गया के प्रतिष्ठा बंद हो गई। जगत् के लोग कहते हैं न कि 'मेरा आत्मा पापी है,' वे प्रतिष्ठित आत्मा के लिए कहा जाता है। मूल आत्मा तो शुद्धात्मा है, वह एक क्षण के लिए भी अशुद्ध हुआ ही नहीं। आत्मा के जो पयार्य हैं, वे अशुद्ध हुए हैं, इसलिए प्रतिष्ठा की कि 'यह मैं हूँ, यह मेरा है।' 'चार्ज' में प्रतिष्ठित आत्मा नहीं होता। 'चार्ज' में 'खुद' होता है। 'डिस्चार्ज' में प्रतिष्ठित आत्मा होता है। व्यवहार आत्मा : निश्चय आत्मा! प्रश्नकर्ता : ये शुभ-अशुभ भाव होते हैं, वे किसे होते हैं? प्रतिष्ठित आत्मा को? दादाश्री : ऐसा है कि जब प्रतिष्ठित आत्मा शुभ और अशुभ भाव करें, उस समय वह 'प्रतिष्ठित आत्मा' नहीं माना जाता, उस घड़ी 'वह व्यवहार आत्मा' माना जाता है। प्रतिष्ठित आत्मा तो, जिसे स्वरूप ज्ञान मिला, उसके बाद जो बाकी रहा, वह प्रतिष्ठित आत्मा है। देह में 'मैं पन' करके जो प्रतिष्ठा की थी, उस प्रतिष्ठा का फल बाकी बचा है। स्वरूप ज्ञान से पहले प्रतिष्ठित आत्मा नहीं कहलाता, व्यवहार आत्मा कहलाता है। प्रश्नकर्ता : जब व्यवहार आत्मा शुभ-अशुभ भाव करता है, तब चैतन्य आत्मा को वळगण किस तरह लगती है? दादाश्री : ये शुभ-अशुभ भाव होते हैं, उनमें व्यवहार आत्मा अकेला नहीं है, निश्चय आत्मा साथ में होता है, 'उसकी' मान्यता ही यह है कि यही मैं एक हूँ। प्रश्नकर्ता : निश्चय-आत्मा का अर्थ क्या है? । दादाश्री : निश्चय-आत्मा अर्थात् शुद्धात्मा। ऐसा है कि, यह जो 'व्यवहार आत्मा' है, वह व्यवहार से कर्ता है और निश्चय से आत्मा अकर्ता है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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