SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-३ १२३ मैं सर्व परतत्वों से सर्वथा वीतराग ही हूँ। इस उदासीन का मतलब लोकभाषा का उदास नहीं, लेकिन मैं स्वतत्ववाला हुआ इसलिए अब मुझे इन पराये तत्वों की ज़रूरत नहीं है। इसलिए 'उसे' उदासीन भाव रहता है, खुद का सुख अनंत ऐश्वर्यवाला है ऐसा भान हो जाए तो बाह्यवृत्तियाँ नहीं होती, यानी कि परद्रव्यों के प्रति वीतराग भाव रहता है। खुद के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो, वैसी उदासीनता हमें (आत्मज्ञान प्राप्त महात्मा) नहीं रहती। लेकिन उल्लासित उदासीनता रहती है। जब भक्त लोगों के घर पर विवाह होता है तो भी उन्हें उदासीनता लगती है, वैसा हमें नहीं होता। आत्मस्वरूप प्राप्त करने के बाद में पहले बाकी सभी जगह से उदासीनता आती है और अंत में वीतरागता आती है। प्रश्नकर्ता : वैराग्य, उदासीनता और वीतरागता में क्या फर्क है? दादाश्री : वैराग्य क्षणजीवी है। वैराग्य उत्पन्न होने से लेकर संपूर्ण वैराग्य रहे, उस सारे भाग को वैराग्य कहा है। बैराग का अर्थ है जो 'नहीं भाए,' जो नापसंद हो जाए, वह। लेकिन वह सही (प्रोपर) नहीं है। दुःख आए तो वैराग्य आता है, और उदासीनता वीतरागता का प्रवेशद्वार है। उदासीनता, वह क्रमिकमार्ग की बहुत ऊँची वस्तु है। क्रमिकमार्ग में उदासीनता आना अर्थात् सभी नाशवंत चीज़ों के प्रति भाव टूट जाता है और अविनाशी की खोज होने के बावजूद वह प्राप्त नहीं होता। बैरागी को जो 'अच्छा नहीं लगता,' वह उसकी खुद की शक्ति से नहीं होता। कुछ पसंद आए और कुछ नहीं पसंद आए, ऐसा होता है; जब की उदासीनतावाले को तो सिर्फ आत्मा जानने के अलावा अन्य किसी वस्तु में रुचि नहीं होती। प्रश्नकर्ता : वीतरागता बरत रही है या उदासीनता बरत रही है, यह कैसे समझ में आए? दोनो में फर्क क्या है? दादाश्री : उदासीनता का मतलब राग-द्वेष पर पर्दा डाल देना, वह
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy