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आप्तवाणी-३
आत्मा देह स्वरूपी नहीं है, वाणी या विचार स्वरूपी नहीं है। आत्मा तो केवलज्ञान स्वरूपी है! मोक्ष दूर नहीं, खुद के पास में ही है। ये झाड़झंखाड़ चिपके हैं, इसलिए अनुभव में नहीं आता है। मोक्ष का अर्थ यह है कि संसार स्पर्श न करे, कषाय नहीं हों। श्रद्धा से केवलज्ञान हुआ हो तो देहसहित मोक्ष है और केवलज्ञान हो जाए, तब मोक्ष होता है। श्रद्धा से केवलज्ञान अर्थात् केवलदर्शन।
प्रश्नकर्ता : केवलज्ञान के बारे में समझाइए।
दादाश्री : आत्मा खुद ही केवलज्ञान स्वरूप है। यह जो देह है, वह स्थूल स्वरूपी है। अंदर अंत:करण और वे सब सूक्ष्म स्वरूप भी हैं,
और आत्मा है। आत्मा तो केवलज्ञान स्वरूप अर्थात् प्रकाश स्वरूप ही है, प्रकाशमय ही है, अन्य कुछ भी नहीं है उसका। जैसे-जैसे परमाणु बढ़ते गए और हम मानते गए है कि 'मैं मनुष्य हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ' वैसेवैसे अज्ञान की तरफ चले। समकित होने के बाद केवलज्ञान की तरफ जाना है। धीरे-धीरे जैसे-जैसे बोझे घटते जाते है, संसार के लफड़े छूटते जाते हैं, वैसे-वैसे आनंद बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे खुद परमात्मा बन जाता है।
'केवल' अर्थात् एब्सोल्यूट, जिसमें अन्य कुछ भी मिला हुआ नहीं हो, वह एब्सोल्यूट ज्ञान।
अभी जर्मनीवाले कोई पूछे कि वर्ल्ड में थ्योरी ऑफ एब्सोल्यूटिज़म है किसी जगह पर? तो हम कहेंगे कि ये 'दादा' हैं कि जो थ्योरी ऑफ एब्सोल्यूटिज़म ही नहीं, लेकिन एब्सोल्यूटिज़म के थियरम में बैठे हुए हैं! तुझे जो पूछना हो वह पूछ। यह 'अक्रम विज्ञान' अर्थात् थ्योरी ऑफ एब्सोल्यूटिज़म है।
ज्ञान का स्वभाव ही है कि ज्ञान खुद तद्-रूपकार रहता है। तब वह दर्शन के स्वरूप में रहता है, प्रकाश के स्वरूप में रहता है और आनंद के स्वरूप में रहता है।
केवलज्ञान भीतर सत्ता में है, लेकिन (आप में) आज उपयोग में नहीं आ रहा है। ये सत्संग करते हैं, तो उसे व्यक्त करते हैं। एक दिन