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आप्तवाणी-३
हैं। या तो किसी पर द्वेष करता है, या तो डॉक्टर पर राग करता है, रागद्वेष करता रहता है। जहाँ राग-द्वेष नहीं हों, वह आत्मज्ञान की निशानी है।
पूरा जगत् जहाँ पर उसे खुद को अच्छा लगे' वहाँ पर तन्मयाकार हो जाता है, उसी रूप हो जाता है। और स्वरूप ज्ञान के बाद में वह तन्मयाकार नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : निर्वेद का मतलब क्या है?
दादाश्री : निर्वेद अर्थात् मन-वचन-काया, इन तीनों के इफेक्टिव होने के बावजूद अन्इफेक्टिव रहता है, वेदना नहीं रहती। सिद्ध भगवान को निर्वेद नहीं कह सकते। क्योंकि उनमें मन-वचन-काया नहीं हैं। वेदना के आधार पर ही निर्वेद टिका है। यह द्वन्द्व हैं। सिर्फ वेद नहीं कहलाता।
जानने में आत्मा वेदक हैं और सहन करने में निर्वेदक हैं।
आत्मा तो परमात्मा स्वरूपी हैं। उस पर भी इस देह का असर होता है। उस असर को 'देखते' रहे तो मुक्त हो गए!
आत्मा : शुद्ध उपयोग इस देह के साथ में जो आत्मा (व्यवहार आत्मा) है, उस आत्मा को उपयोग होना चाहिए। मनुष्य चार प्रकार से उपयोग कर रहे हैं। ये जानवर आत्मा का उपयोग नहीं करते। उपयोग सिर्फ अहंकारियों को होता है। जानवर तो सहजभाव में है। इन गायों-भैंसों को सहजभाव से रहता है कि यह खाने लायक है और यह खाने लायक नहीं है।
आत्मा के चार उपयोग हैं। अशुद्ध उपयोग, अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग और शुद्ध उपयोग।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के उपयोग, वे 'शुद्धात्मा' के हैं या 'प्रतिष्ठित आत्मा' के हैं?
दादाश्री : पहले तीन उपयोग प्रतिष्ठित आत्मा के हैं और शुद्ध उपयोग, वह शुद्धात्मा का है और वह भी वास्तव में तो प्रज्ञा का है।