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________________ सत्देव : सद्गुरु : सत्धर्म सत्देव, सद्गुरु और सत्धर्म, वे जो कहलाते हैं, वे वास्तव में कौन सत्देव कौन? सत्देव जिनालयवाले या मंदिरवाले नहीं हैं, आपके भीतर हैं। वे भीतरवाले सत् भी, जब तक ये भीतरवाले' सत्देव नहीं मिल जाते, तब तक जिनालय या मंदिर की मूर्ति, वही सत्देव। सद्गुरु कौन? अंतिम गुरु, वे 'ज्ञानीपुरुष' हैं। जब तक 'ज्ञानीपुरुष' नहीं मिलते, तब तक जो कोई थोड़े जप-तप दें, थोड़ा समझाएँ, वे सद्गुरु हैं। और अपने यहाँ इस' मार्ग में सत्देव, सद्गुरु और सत्धर्म कुछ अलग हैं। सत्देव तो 'भीतरवाले' जो सत् हैं, वही। वे तुरंत ही फल देते हैं, केश देते हैं, उधार-वुधार नहीं। सारी जिंदगी धर्म किए हैं, लेकिन ठंडक नहीं होती और कलेजा ठंडा नहीं पड़ता। अंदर हमेशा खौलता ही रहता है। और यहाँ तो बात ही अलग है, जितना पीना आ गया उतना लाभ होता है। धर्म तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन ज्ञानी नहीं मिलते! और तब तक छुटकारा प्राप्त नहीं होता, भटकते रहना है तब तक। सत्धर्म, सद्गुरु नहीं मिलें, तब तक सत्देव हाज़िर नहीं होते और तब तक कषाय काटते रहते हैं भीतर। संसार का मार्ग रिलेटिव कहलाता है। उसमें व्यवहार और सिर्फ व्यवहार ही होता है। भ्रांतिवाले को भगवान ने कहा है कि, 'सत्देव, सद्गुरु और सत्धर्म की स्थापना करो।' जब तक 'ज्ञानीपुरुष' नहीं मिलते, तब तक व्यवहार है। तब तक रिलेटिव सत्देव की स्थापना करनी पड़ती है। प्रश्नकर्ता : रिलेटिव सत्देव यानी क्या? मूर्ति?
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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