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________________ आप्तवाणी-२ संप्रदाय के महाराज मुझे मिले थे। उन्होंने मुझसे कहा कि, 'मोक्ष तो हमारा ही होगा न!' मैंने पूछा, 'ऐसा किसलिए कह रहे हो?' तब उन्होंने कहा, "क्यों? भगवान ने नहीं कहा कि 'नग्गाए मोक्ख मग्गा?" मैंने कहा, "आपकी बात तो सच है। भगवान ने कहा है, वह सही कहा है कि 'नग्गाए मोक्ख मग्गा, लेकिन आप समझे हो उल्टा। भगवान ने आत्मा नग्न करने का कहा है, न कि देह।' ___ यह तो नासमझी उत्पन्न हो गई है। आत्मा के ऊपर तीन कपड़े हैं, मन के, वाणी के और काया के, वे कपड़े निकालने हैं। जो उन्हें निकाल दे और आत्मा को नग्न करे, वह सच्चा दिगंबर। मन-वचन-कायारूपी कपड़े निकालने हैं। वही सबसे बड़ा परिग्रह है, इसलिए उसे निकालना है। यह पक्षपात किसके जैसा है, वह कहूँ? खुद, खुद को सुंदर नहीं लगे, क्या ऐसा होता है? नहीं, तब तो दर्पण के साथ बनेगी ही नहीं न! लेकिन यह तो बनती है, इसका कारण यह है कि खुद पक्षपाती है! रूप तो किसे कहते हैं कि जो याद आता रहे। लेकिन ये तो पक्षपाती हैं। निष्पक्षपाती हों तो साथवाले को भी सुगंध आती है। और पक्षवाले तो जहाँ जाएँ, वहाँ दुर्गंध उठती है, घर में भी सिर्फ बदबू ही! कुछ लोग हमें कहते हैं कि, 'आप जैन हैं?' कुछ कहते हैं कि, 'आप वैष्णव हैं?' 'अरे, हम तो काहे के जैन और काहे के वैष्णव? हम तो वीतराग हैं। इसमें सभी धर्म समा जाते हैं!' हमें जैन कहकर या वैष्णव कहकर सामनेवाला अपने लिए अंतराय डालता है। हमें पक्षपाती मानता है। लेकिन एक बार हमें इन रामचंद्र जी के दर्शन करते हुए तो देख न ! एक बार रामचंद्र जी के दर्शन करते हुए हमें देखे तो उसकी सभी मान्यताएँ टूट जाएँ। लेकिन वैसा पुण्य जागना चाहिए न?
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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