SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-२ है। फिर वापस एक जन्म प्रकृति को हल्की करने में जाता है और यदि कोई कुसंग मिल जाए तो वह प्रकृति को मज़बूत कर देता है! इसलिए उसे भगवान ने गजस्नानवत् कहा है। गजस्नानवत् यानी कि जैसे हाथी पानी में नहाता है और बाहर निकलकर धूल उड़ाता है शरीर पर, वैसी दशा है इन मनुष्यों की! आत्मज्ञान, वह तो दुर्लभ चीज़ है। अत्यंत दुर्लभ, दुर्लभ है। मोक्ष तो बस नाम लेते हैं उतना ही, बात करते हैं उतना ही। बाकी प्राप्ति होना, वह आसान नहीं है। सभी प्रकृति ज्ञानवाले मन में क्या कहते हैं, 'मैं सब जान गया!' 'अरे! वह तो प्रकृतिज्ञान जाना तूने! आत्मज्ञान जानना है। कितने ही जन्मों से प्रकृतिज्ञान, वही का वही जानते रहे हैं और क्या किया है? करती है प्रकृति और कहेगा, 'मैंने किया।' प्रकृति उसे नचाती है, उठाती है और कहेगा, 'मैं उठा।' सुलाती भी प्रकृति है, सोना हो तो सो नहीं पाता और जब प्रकृति सुलाती है तो कहेगा, 'मैं सो गया!' बाकी हम गारन्टी से कहते हैं कि पूरा जगत् प्राकृतज्ञान में है। कोई शास्त्र पढ़ रहा हो या महावीर के पैंतालीस आगम धारण कर रहा हो या चार वेद धारण कर रहा हो, तब भी हम उसे कहें कि, 'तू अभी प्राकृतज्ञान में है!' आत्मज्ञान और प्राकृतज्ञान में छाछ और दूध जितना डिफरेन्स है। छाछ और दूध दोनों सफेद दिखते हैं। प्राकृतज्ञान कैफ़ चढ़ाता है और आत्मज्ञान कैफ़ उतार देता है। जिस प्रकार का कैफ़ हो, वह सभी प्रकार का कैफ़ आत्मज्ञान उतार देता है। कैफ़ घटता जाए, वही आत्मज्ञान का लेवल है। प्रश्नकर्ता : क्या शास्त्र पढ़ने से भी अहंकार बढ़ता है? दादाश्री : हाँ, क्योंकि वह प्राकृतज्ञान है, इसलिए उन सब का कैफ़ चढ़ता है कि, 'मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ।' अरे! क्या जाना तूने? कढ़ापाअजंपा (कुढ़न, क्लेश, बेचैनी-अशांति) तो जाता नहीं तेरा। गिलास फूट जाता है, तब तेरा आत्मा फूट जाता है! और 'ज्ञानीपुरुष' को तो, उनके हीरे खो जाएँ, तब भी कुछ नहीं होता। इनका यह ज्ञान तो कहाँ रहता है? 'मैं कुछ जानता हूँ,' इतना ही। इस काल में तो बड़े-बड़े साधु महाराज, आचार्य, वे सब कैफ़ में
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy